उपन्यास १९३ से युक्त माला को यों-ही नष्ट न कर सकी। उसने सोचा- इस समय उसके हृदय में वो सब से अधिक निकट है, सब से अधिक प्रिय है, सब से घाधेक सुन्दर और स्नेहवती है, यही क्यों न इस फोमल-सुरमित माला को ग्रहण करे ? वह माला को आँचल में दिपाकर वहाँ ले धाई, और रामायण-पाठ परती, जमुद के गले में उसे पीछे से पहना दिया। इसके बाद उसने अपने मृणाल-से भुन उन स्नेहवती सखी के गले में दाल दिये। मानवी का ऐसा प्यार पाफर कुमुद गद्गद् होगई। उसने खींचकर उसे अपनी गोद में बैठा लिया। यह यही देर तक उसे प्रगाद प्रेम के मावेश में सदय से लगाए रही। फिर उसने कहा -"मालती, मेरी प्यारी सखी ! मैं तुझे फितना चाहती हूँ! मैं अत्यन्त असहाय और अपना हूँ। तू इतना लेह इस नन्हे-से हदय में लिये फिरती है। तू यानन्द और प्रेम की प्रतिमा है। मेरी प्यारी मालती, मेरी इच्छा होती है, तुझे हृदय में रखतूं।" मालती की आँखें मर थाई। श्राज यह अमूर्त दर्शन पनने में अक्षम होकर अस्वाभाविक रीति से गम्भीर होगई थी। उसने कहा-"नीली ! मुझे अपने जैसा पवित्र बना दो। मेरे हृदय की भाग युमादो। मुझे शान्त करदो। मैं जितना ही शान्त होना चाहती हूँ, उतनी ही अशान्ति मुझे था-दवाती है। मेरे धर्म-धनु और इस अधम शरीर का रोमसोम उनका भूखा है । मैं उस भभूत के दर्शन तो कर ही नहीं पती-जिसे १३
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