उपन्यास १८७ at "क्या यात ?" जयनारायण ने फातर दृष्टि से उसे देखकर कहा-~"रुपये १००) खर्च होंगे यापके। हाँ मामला साफ ही अच्छा होता है।" "सौ रुपये ?" कहकर जयनारायण ऐसी भनुनय दृष्टि से देखने लगे, कि पत्थर भी पसीज जाता। पर पादेती ने अन्यत्र देखते हुए कहा--"यह अधिक नहीं है। कभी-कभी झमेले में पड़कर इससे दूना-ठूना सर्च कर देना पड़ता है। चौधरी का ही मामला देखो न ?" "वह तो ठीक है, पर मेरी हैसियत को देखकर मांगो।" "यच्छा, और १०) रुपये फम सही। पर इससे कम तो न होगा।" इतना कहकर पदिली उठने लगे जयनारायण ने पैर पकड़कर फहा-"जरा ठहरिये तो रूही, अच्छा २१) लेनीजिये। "नहीं जी।" इतना कह, और अवज्ञा की हनी हंसते हुए पाड़ली चलने के लिये अपना दुपट्टा सम्हालने लगे। जयनारायण टनके पैरों पदकर गौ की तरह डकराने और विनती करने लगे। पर उस पत्थर के पसीजने का लक्ष्य नहीं दीखा । वही बीच-तान से ४०) में फैसला हुआ। बात यह उहरी, कि २०) पहले दिये जायें, और योस काम होने पर। अब पाँडेजी जेब से तम्बाकू की दिदिया निकाल, चूना तते-मलते वोले-"यस तो दरार से रुपये जब पहुँच जावेंगे, काम शुरू होनायगा।"
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