१८६ अमर अभिलाषा पाँडेजी ने कुछ साहस बढ़ाते हुए कहा-"और, जो हुई सो हुई, पर उपाय सव घात के हैं। कुछ लड़कियों को हुथा है क्या? हरवंस चौधरी की बात याद है ? उसको लदकी का ऊँचा-नीचा पैर पड़ गया, वही मुश्किल पड़ी उसकी मां ने मुझे खयर दी, वस, चुटकी बजते-बनते सब ठीक होगया । जो पीछे से पुलिस न आती, तो किसी को इस बात की खबर भी न होती। पर उस झमेले में मेरे भी २००) विगढ़े । साले मेरे ही पीछे पड़ गये।" जयनारायण काँपकर बोले-"नहीं-नहीं, एक और प्रादमी है; उसको यही मामला है। इसका तो उपाय करना ही होगा पाँउनी । श्राप पर विश्वास है, तभी यह बात कही है।" पाँडेजी बड़े घाघ थे। ज़रा गम्भीर बनकर बोले-"जैसा विश्वास है, वैसा काम भी होगा । पर दीवानजी, नाराज़ न होना, श्राप बात छिपाते हैं । (कान में ) मुझे तो भगवती के पैर भारी मालूम होते है।" जयनारायण अत्यन्त चंचल हो उठे। उन्होंने रोफर पाँडेजी के पैर पकड़ लिये, और हाथ जोड़कर बोले- "मेरी पगड़ी आपके हाथ में है । जैसे हो, इज्जत बचाइये । जन्म-भर अहसान न भूलूँगा।" यह कहकर वे उसके अपवित्र चरणों में चिपट गये । अब जैसे सिंह अपने छटपटाते शिकार को देखता है, वैसी- ही दृष्टि से उन्हें देखते हुए पाँढेजी ने कहा- "इस तरह छट- पटाने से तो काम न चलेगा। जब मैं हूँ, तो डर किस यात का है पर एक बात है।"
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