उपन्यास १९ - बगी । 'शंद, अभागिनी, हत्यारी, मायाविनी, प्रसनी'-आदि उपाधियाँ उस पर बरसने लगीं। यालिका मी अब फूट-फूटकर रोने लगी। रोतेगोते ही वह धरती पर फिर गिर गई। पर किसी ने भी न उससे। कोई सहानुभूति 'प्रकट की, न उसे सम्हाला होलियों की गाली-वर्षा भी उसी भाँति नारी रही। धीरे-धीरे और भी स्त्री-पुरुष इकटे होने लगे । प्रत्येक सी के थाने पर मन्दन यद बाता या, पुरुषों में भी भाँति-भांति की चर्चा होने लगी। कुछ देर मानव-जीवन की एण-मंगुरखा पर भिन्न-भिन उक्तियाँ और वास्य कहे गए। फिर संसार की भसारता फी व्याख्या हुई । जिसकी जैसी भाषा थी, और शिक्षा यी, सय ने इस अगम्य विषय पर कुछ-न-कुछ अपनी राय प्रफट की। इनकी बातें सुनकर रमाकान्त जोर-कोर से रोने और 'चिल्लाने लगा। कुछ लोगों ने ज़ोर से साँस भरी, कुछ ने आँसू पॉछने का अभिनय किया । एक ने कहा- "भाई! इस यूटे पर ग़ज़ब फा पहाड ही टूट पड़ा । बड़ा सड़का कहे में नहीं, यह योंगया।" दूसरा योला-"भगवान् की माया है, क्या करें-येचारे के घन नहीं था, बन भी बिन गया।" तीसरा बोला-"और लड़का कैसा होनहार या! पढ़ने- लिखने में होशियार-चतुर । हम तो तभी कह दिया करते थे, कि यह क्या इस घर के लायक है?" नयनारायण (लड़की का पिता) बोला-"मैंने तो लड़के
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