१८४ अमर अभिलाषा "मुझे कुछ जरूरी बातचीत करनी थी; क्या श्रापको बहुत जल्दी है " "ऐसा ? पच्छा चलो-जरूरी काम है, तव भी तुम्हारे लिए छोड़ सकता हूँ।" "बात कुछ ऐसी या पडी हे, कि श्रापको तकलीफ़ दिये विना न चलेगा।" यह कहते-कहते नयनारायण के होठ सूख गये। "अच्छा, क्या है ? देखता हूँ, आप बुरी तरह घबरा रहे है। मेरे लायक कोई काम हो, तो बे-खटके कह डालिये । आपके लिये जान तक हाज़िर है, दीवानली!" "इसमें क्या शक है ! तभी तो भाप पर पूरा भरोसा है !" इतना कहकर नयनारायण ने मन की बात छिपाने को जरा दाँत दिखा दिये। पौडेजी बोले-"तो खड़े-खड़े कब तक बातें करोगे? चल- कर बैठक में यात-चीत करें।" जयनारायण उन्हें लेकर बैठक में पाये । कुछ देर सन्नाटा रहा । जयनारायण यही सोच रहे थे, कि किस तरह काम की बात चना । पाँडेनी बोले-"हाँ, तो भव कहिये, क्या मामला है ?" जयनारायण कुछ झिझकते हुए बोले-"बात पेट में ही रखने की है, पडिली! भब रंग-ढंग देखकर पाँडेनी समझ गये, कोई स्कीन मामला है। उन्होंने कहा-"इस पेट में जो बात जाती है, वह .
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