१८२ अमर अभिलाषा पाँढनी ने देखा-दन्सी भगत खड़े हैं। घव वे हरिया से चटपट ठपडाई बनाने को कहकर हँस-हँस- कर भगतली से बात करने लगे। उनतीसवाँ परिच्छेद श्राज जयनारायण के घर में पानी का निमन्त्रण है। खाने-पीने का विरोप थायोजन किया गया है। समय पर पढिनी ने हंसते-हँसने घर में प्रवेश किया। श्रान वे खूब बन-उनकर थाये थे। रेशमी धोती, हरी फलालेन की वण्डी, सिर पर रेशमी साफा, पैर में खड़ाऊँ और माथे पर भस्म का बड़ा-सा टीका । उन्हें देखते-ही जयनारायण ने बढ़े पाप-मगत से कहा-"आइये, आइये ! मैं यापकी इन्तज़ार ही कर रहा था !" पदिनी ने घरोसा जताकर कहा- "कुछ ज्यादा देर तो नहीं हुई ?" "नहीं-नहीं, थाइये, भीतर चलिये; सब तैयार है।" पौडेनी चारों तरफ भेद-दृष्टि से वाफते-ताकते चले। भीतर आँगन में पहुँचने ही फहा--"आपके लड़के बच्चे कहाँ है ? सब राजी वो हैं ? लङकी तो दोनों यहीं हैं ?" जयनारायण मन का दुःख दबाकर बोले- हां, "यहीं है। सव आपकी दया है।"
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