पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१८४

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१५० अमर श्रमिलापा नारायण मुस्कराने की चेष्टा फरने लगे, पर उनके नेत्रों में घृणा फाभाष पागया। पाँढेजी दोनों फानों पर हाय धरकर बोले-"हरे कृष्ण! हरे कृष्ण ! हम नरक के कीट है! साधु-महात्मा कैसे हो सकते है?" मन की घृणा को मन ही में दयाफर जयनारायण योले- "थाप चाहे-जो फह-पर लोग तो ऐसा ही सममते है।" पढ़ेिजी भंग धोफर इकट्ठा करते-करते वोले-"यह तो उनकी भगती है।" इतनाफह,ऊँचे स्वर से पुकारा-"अरेगोविन्दा इधर तो था। दीवानजी के लिए दूधिया बना ले । झपाके से तैयार कर!" जयनारायण ने विनय से हाथ जोड़कर कहा-"मुझे तो मात करें । मुझे जाना है। और आप जानते ही है, मैं यह सब पीता-बीता नहीं हूँ।" पौडेजी ने अत्यन्त भाग्रह से कहा-"यह सब न चलेगा। और न हो, धाधमन ही कर लेना, पर ठरहाई पीनी अवश्य पढ़ेगी । यह तो देवादिदेव की चूटी है, इसका तिरस्कार क्या ?"नपनारायण उठते-उठते योले-"नहीं-नहीं-इसके लिए मुझे क्रसन सममिये । जिद न करें।" कहकर लगे जतापहनने । पदिनी ने कुछ ठीले पड़कर कहा-"वो यह बात तो अच्छी न रही । कब-बब तो धाये, और योंही चल दिये, न सातिर न तवाजा" जयनाराषण ने मुस्कराकर कहा-"सय वहाँ भी भाप ही