१७६ अमर अभिलाषा चिल्लाती है। जो श्रय की वार तैने भगवान का नाम लिया, तो तेरा सिर फोड़ दूंगा।" इतना कह, कुछेक क्षण ज्वालामय नेत्रों से स्त्री को देखते रहे, फिर झपटकर बाहर निकल गये।हरनारायण भी नीचा सिर किये घर से बाहर हुए। अकेली गृहिणी टुसक- टुसककर रोती पड़ी रही। अट्ठाईसवाँ परिच्छेद गोपाल पाँढे फा परिचय दिये बिना नहीं चलेगा । इसलिये प्रथम उनका परिचय ही सुनिये । थानकल के कोप के अनुसार इन्हें 'महात्मा', 'हजरत', 'देवता'-जो-चाहे कह सकते हैं। उन्न' इनकी ५५ से ऊँची नहीं है, पर लम्बी दादी और बड़े-बढ़े सिर के बालों से, जो जटा का काम देते है, इनकी शोभा और-ही होगई है। पढ़ने के नाम आप अटक-अटकफर कुछ अक्षर उखाद लेते थे। श्रापको दो बातों का बड़ा शौक था, एक भग पीने का, दूसरा साँप पालने का । दिन-भर में दस-पांच बार की कोई गिनती नहीं । जब कोई भगत आजाता, तभी घोटा चलने लगता है। इसके सिवा आपको और कुछ काम भी नहीं था । बस, . दिन-भर घोटा । योंतो घरस का मी एकाध दम लगाने की श्रापको कलम नहीं थी, पर शराब के आप एकदम विरोधी थे।. उसके गुण-दोष वखानने जब श्राप बैठते, तो आपकी वक्तृता
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