पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८
अमर अभिलाषा
 

घर की स्त्रियाँ पछाड़ खा-खाकर चीख़ रही है, रमाकान्त धरती में पड़ा, आँखें फाड़-फाड़कर आगन्तुकों को देख रहा है। मालूम होता था, अभी इसके प्राण निकल जावेंगे। लड़के की माता बेहोश धरती पर पड़ी थी, कुछ स्त्रियाँ उस पर पानी के छींटे दे रही थीं। सात वर्ष की निरीह बालिका, अब विधवा, पत्थर की मूर्ति की भाँति चुपचाप दीवार से चिपकी खड़ी थी, वह कुछ समझ रही थी, कुछ नहीं। वह न रो रही थी, न उसकी आँखों में आँसू थे। भाई-भावज 'हाय-हाय' कर रहे थे—यह सब देखकर उसका कलेजा भी मुँह को आ रहा था।

लोग-बाग आकर रमाकान्त को घेरकर बैठ गए। पर कोई कुछ बोल न सका--दर्द ने सबका मुंह बन्द कर रखा था, गृहिणी होश में आई, और पागल की भाँति वह मृतक की ओर को लपकी। बीच में बालिका भयभीत नेत्रों से खड़ी देख रही थी। गृहिणी ने उसका हाय पकड़कर खींच लिया। वह कटे वृक्ष की भाँति धरती पर आ गिरी। पास ही एक पत्थर पढ़ा था। उसे उठाकर गृहिणी ने उसके हाथ में दे मारा, चूड़ियाँ चूर-चूर हो गई। साथ ही खून की धारा भी बह चली। वह निरपराधिनी बालिका 'मैया मैया' कहकर चिल्ला उठी। उसका वस्त्र उड़ गया, बाल बिखर गए । गृहिणी ने वही पत्थर भपने सिर पर दे मारा, और बेहोश होकर गिर गई।

घर की स्त्रियों के रूदन का क्रम बदला। वे अब चीत्कार के स्थान पर सिसकियाँ लेकर बालिका को लक्ष्य करके गालियाँ बकने