“१७४ अमर अभिलापा 'स्त्री की ओर देखा। अब गृहिणी'ने धीरे-से स्वामी के पास खिसककर उनके कान में मुंह रखकर कहा-"अभी यात फूटी नहीं है। एक काम करो -इसे हरसोने में छोड़ आयो। वहाँ मेरी विधवा यहन रहती है । सब यात ठीक होजायगी।" "ठीक क्या धूल हो जायगी? वहाँ भी घदनामी फैल जायगी।" "तो करना क्या है ? इस तरह रोने-धोने से तो काम न चलेगा।" जयनारायण कुछ चिन्तित होकर बोले-"हरनारायण, इधर तो था।" हरनारायण उद्विग्न मन से पिता के पास था बैठे। पिता ने -कहा-"गोपाल पाँडे से जाकर सब यात कहनी चाहिये । असल यात वो खोलना नहीं; कहना, किसी के लिये जरूरत है।" हरनारायण ने गुमलाकर घृणा से कहा-"मैं इस काम के लिये कभी न जाऊँगा। सुनेगा-तो क्या कहेगा? और वह है पूरा-पूरा लालची, एफ वात हाथ लगते ही 'हो-हुल्लड़' मचाकर गाँव-भर में वात फैला देगा।" "दस रुपये पाते ही ठण्डा पड़ जायगा। मैं उसे खूब जानता है, उसने कितने ही ऐसे काम किये हैं।" हरनारायण चुपचाप पिता का प्रस्ताव सुनने लगा। उसके चेहरे का रंग गिरगट की तरह बदलने लगा। क्रोध, भय, घृणा, लानि और दुःख के भाव उसके मन में उथल-पुथल मचा रहे "
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