१७२ अमर अभिलाषा और एक-एक प्याला दोनों ने चढ़ाया। इसके बाद क्या चातें हुई-त्या हुआ-उनमें हमारे लिये कुछ सार नहीं। सत्ताईसवाँ परिच्छेद ग्यारह बन चुके हैं । नयनारायण के घर में किसी की आँखों में नींद नहीं है-सब मुँह लटकाये उदास मन । जयना- रायण धीरे-धीरे लम्बी साँस लेते हैं। उसके साथ ही नजाने कितने दुःखोद्गार वायु-मण्डल में मिल जाते है। पास हो उनकी स्त्री बैठी आँसू बहा रही है, और चार-चार भगवान से मौत की प्रार्थना कर रही है। हरनारायण क्रोध से वेचैन होकर रहल रहे हैं । मालूम होता है, उनके सारे शरीर में भाग लग रही है। अन्त में जयनारायण ने करण दृष्टि से पुन्न की ओर देखकर कहा -"श्रव क्या होगा हरनारायण ?" हरनारायण ने चञ्चन दृष्टि से पिता को घूरते हुए कहा- "क्या होगा ? जो होना था, सो हुआ है, और नो होना है, वह होगा । इसे भी देखा है-उसे भी देखेंगे।" जयनारायण मुँह लटकाकर बैठ गये । उन्होंने माथा रोककर कहा-"हाय ! इसीलिये मैं बूढ़ा हुआ था ? मेरे भाग्य में मरना भी नहीं था-मौत भी मंगने से नहीं आती!" हरनारायण ने बीच में ही वात काटकर कहा-"मरने से क्या कुल-कलंक धुल जावेगा?" 1
पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१७६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।