पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१७५

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उपन्यास १७१ . तब इसी तरह तुम मेरा भी ज़िम दूसरी जगह करते होंगे?" "नहीं, तुम्हें तो मैं दिल से प्यार करता हूँ।" "और मुझे नहीं देखते ? घर-द्वार-इजत सभी पर लात मार- कर भा बैठी हूँ ! तुम्हारे सिवा किसी को जानती तक नहीं।" "पर मेरो तितली, उस दर्जिन को हथियाथी, तो बात है।" "यह मुश्किल है।" "क्यों? "वह किसी और के हत्थे चढ़ चुकी है।" "क्या सच ?" "एक गयरू नपान रोज ही उसके घर पाता है।" "ईश्वर की सम-उसे मैं जान से मार डालूंगा।" "क्यों तुम उस प्रभागिनी के लिये किसी को मारोगे? और फिर मैं कहाँ लाऊँगी" "तुम्हारे लिये तो जान हाजिर है।" "फिर उस पर इतना मन क्यों?" "यस, दिल की हालत हो ऐसी हो रही है। नई सूरतें दिल को हमेशा भावी हैं।" "तो अय में पुरानी होगई " "लो, तुम तो फिर उखड़ी-उखड़ी यातें करने लगी! लो, एक-एक प्याला और चदा लो।"