उपन्यास १६७ नरायणी खदी-खड़ी सोचती की, कि अब क्या फरे । पफ पार उसने फिर माँ का कन्या रूपार कहा-"माँ ! यह बहुत बीमार होगई है।" दिया ने मुंमज्ञाकर कहा-"वह मरे भी किसी तरह ! नय यह मर नाय. तर मुझे एखबर देने माना।" यालिका हतारा होफर लौट चली । सोच-विचारकर उसने पिता के पास जाना निधय किया। वह दरते-करते पिता के कमरे मेंस गई। जयनारायण की थांखों में उस दिन नींद नहीं पाई थी, उसने कन्या को देखते ही कहा-"कौन-नरो? प्यों बेटा, क्या हुधा ?" इतना कहकर वे कळकर पुत्री के पास था-सड़े हुए। नारायणी ने फॉपने स्वर से कहा-"जीजी बहुत बीमार होगई है, गत-भर यफती रही है। कभी-कभी उठकर भागती थी। मैने की मुश्किल से रोका है । सारा ददन भाग की तरह तप रहा है।" जयनारायण ने चुपचाप एक एदी साँस लेकर द्वार की तरफ देखा, और चुपचाप भगवती के कमरे की ओर चल दिये । देखा- भगवती जर में बेहोश पडी है । तब तक कुछ प्रकाश होगया। उसके वस्त्र को उठाकर जो उन्होंने उसका शरीर देखा, तो उनके सिर में चार थागया। हाय !शरीर-मर में चमदी नहीं बची थी। जयनारायण थोड़ी देर तक अपनी अभागिनी पुत्री की दया देखते रहे-मानो वह कोई भयकर स्वम देख रहे थे। उनका -
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