१६६ अमर अभिलाषा उच्च प्रालिका पर खड़े होकर समस्त विश्व के आलोक के अद्भुत और रोचक दृश्य देखें; या जो कुछ अधेढ़ भक्त-जन सितार की झनकार के साथ प्रभाती की धुन छेढ रहे हैं, उसे एक मन होकर सुने और नहीं तो प्रातःकाल की एक मोठी झपकी ही लेलें । पर ऐ हमारे दयालु, पाठको! हमारी विनती स्वीकार करके बनिक उस कोठरी में तो चलो, बहाँ एक बालिका भयङ्कर ज्वर में तपती हुई बेहोश पड़ी है, और दूसरी अत्यन्त वेसवरी के साथ दिन निकलने की प्रतीक्षा में बैठी उसका मुंह निहार-निहारकर और बीच-बीच में उसका शरीर छू-फर रो रही है। हम समझते हैं कि वालिका की इस दुरवस्था पर श्रापको थाश्चर्य न होगा। इतनी शारीरिक और मानसिक पीडा को सहन करके भी वह यदि स्वस्थ रहती, प्राश्चर्य इसी बात में था ! धीरे-धीरे और भी कुछ उनाना हुा । बालिका नारायणी धीरे से उठकर कोठरी से बाहर हुई । सब पड़े सो रहे थे। नारायणी चुपचाप पैर दबाये माता की कोठरी में घुस गई । देखा, माता बेसुध पडा सोरही है। उसने उसका कन्धा हिलाकर कहा-"माँ, माँ जरा उठतो।" वृद्धाने आँख खोलकर कहा-"कौन-नारायणी क्या है?" "माँ, जीनी को तो चलकर देख-वह कैसी होरही है ?" वृद्धा ने माया सिकोड़कर कहा-"क्यों, कैसी होरही है ? चन, परे हो यहाँ से ! मरने दे खबरदार ! जो यहाँ पाई !!" इतना कहकर वह मुंह फेरकर पड़ रही। थोड़ी देर तक .
पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१७०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।