उपन्यास १६५ भगवती ने बहन को यहलाने के लिए उसकी यात को स्वीकार कर लेना ही उचित समझा; भगवती चलकर सो रही, नारायणी पासायटफर पहा करने लगी। भगवती ने कहा-"नरो । मा, तू भी यहीं सोना ।" नारा- यणी उपके से यहन पास के जा पड़ी। अच्छा पाठक ! हम थापसे यह पूछते हैं कि नारायणी को कलङ्क लगा या नहीं? पापिनी पहन को प्यार करके उसने पाप किया या नहीं ? यह उसके पास सोकर पतिता हुई या नहीं? यतायो, इसका उत्तर क्या है ? हमें तो कुछ कहते बनता ही नहीं। पच्चीसवाँ परिच्छेद समस्त विश्व प्रभात होने में देर है । उपा का उदय होगया है । तारों की ज्योति फीकी पड़ गई है। पूर्वाफाश में पीली प्रभा की मलफ दिखाई दे रही है । शीतल-मन्द-सुगन्ध अयार दह रही है। सुख की नींद लेरहा है । पाटफ चाहते होंगे, कि ऐसे मनोरम काल में हम किसी पाटिका में जाकर अर्च-विकसित कुसुम फालिकाओं की नव्य गन्ध से मन प्रसन्न करें; अयवा भगवती भागीरयी के उपकूल पर नाकर कोसों तक फैली हुई रनत-वर्ण वालुका को निहार-निहारकर प्रफुल्ल हों; अथवा धवन
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