१६४ अमर अभिलाषा थी, अब उसकी भी बारी बाई । वह चुपचाप वहन के ऊपर मुक- कर रोने लगी, उसके गर्म-गर्म आँसू जब भगवती की पीठ पर गिरे, वो भगवती ने मुँह उठाकर शीण स्वर से कहा-"क्यों रोती है नारायणी?" नारायणी रोती रही। भगवती ने उसका हाथ पकड़कर कहा-"परी, रोती क्यों है ?" नारायणी रोती रही। भगवती उठकर बैठ गई । उसने नारायणी के आंसू पोंछकर कहा-"रो मत, श्रव मैं वैठ गई।" नारायणी और ज़ोर से रोने लगी। भगवती ने बार-बार आँसू पोंछकर कहा-"चुप होना नरो! इतना क्यों रोती है, वता तो?" नारायणी ने हिचकी लेते-लेते कहा-"तुमे भाई ने इतना क्यों मारा था?" भगवती का कलेना मुंह को पाने लगा था। उसने जल्दी से बहन को छाती में चिपका लिया। दोनों में कौन अधिक रो रहा था, यह बताना कठिन है । पर उनका तार टूटना ही न था। दोनों एक दूसरे को धीरन देने के लिए रोना बन्द करना चाहते थे, पर रोए ही जाते थे । अस्तु, अवसान सब का है,रोने का भी अवसान हुश्रा । नरो ने वहन की छाती में से सिर निकालकर कहा-"जीनी ! चल, खाट पर सोरह।"
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