उपन्यास १६१ वृद्धा ने पुत्र की ऐसी कड़ी वात कभी नहीं सुनी थी। सुन- कर जो उसे क्रोध हुआ था, वह इन चीजों को देखकर काफूर होगया । वह बात से आँखें .फाड़-फाड़कर पुन के मुख को वाफने लगी। हरनारायण ने कहा "अव भी समझी कि नहीं, या और समझा" इतना कहकर उसने पय निकालकर अपनी स्त्री के हाथ पर धरके कहा-"इसे भी सुनादो, जिससे इसके कान खुल नायें ।" हरदेई ने पत्र ज्यों-का-त्यों सुना दिया। गृहिणी का माथा घूमने लगा । वह सिर पकड़कर वहीं बैठ गई । घर में गोलमाल देखकर जयनारायण भी वहाँ भागये थे, और सब कथा सुन रहे थे। परन्तु उन्हें किसी ने देखा नहीं था। सब कुछ सुनकर उबढी साँस लेजर नीचा सिर किये वे घर से बाहर निकल गये । गृहिणी के हृदय में बड़ी चोट लगी थी। वह कुछ देर तक चुपचाप वजाहत की भांति बैठी रही । घर-भर में समाया छागया । अन्त में वृद्धा अत्यन्त दुःख से छटपटाफर रोने और 'हाय-हाय' करने लगी। हरदेई ने उसका हाथ पकड़कर कहा- "अव उठो । यह वो जन्म-भर का रोना है-अच्छी तरह आराम से रोना-कों के पाप क्या बिना फले रह सकते है। गृहिणी ने दांत पीस और छाती कूटकर कहा-"छजिया बन्द ! तेरे कोद चुए-तेरे मास को कौवे चील खाय-तेरे कीड़े पढ़ें !! मेरी दूध की बच्ची को तैने जहर बनाया है । हत्यारी !
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