१६० अमर अभिलापाः उसकी माता ने कमरे में प्रवेश किया। कोरी का रंग-ढंग देख-. कर उसने अफचफाफर पूछा-"यह क्या हुया रे?" हरनारायण कुछ देर तक ज्वालामय नेत्रों से मां की ओर वाकर वड़यदाता रहा । गृहिणी ने देखा, मामला कुछ संगीन है। उसने गम्भीरता से कहा-"अरे वता तो, कह-हुमा क्या?" ने कहा- हरनारायण ने लढ़खड़ाती हुई जवान से कहा-"हुआ तेरा सिर! सब नाकर कुएँ में डूब मरो !" इतने में हरदेई और नारायणी भी वहीं आपहुँचीं। हरदेई. "माँनी! क्या पूछती हो, कहने की यात ही नहीं रही" गृहिणी ने बहू की ओर फिरफर कहा-"तु ही कुछ यता,. बात वो मालूम हो?" हरदेई ने धीमे स्वर में कहा-"तुम्हारी धी ने खूब बस फमाया है। गृहिणी ने मुमलाकर कहा-"बेहदा!क्यों जवान चलाती: है, साफ-साफ़ क्यों नहीं कहती ?" हरनारायण ने तमककर कहा-"तेरी आँखें तो नहीं फूट गई। यह देख; अपनी लाहिली केटी को ये सामान तैने ही खरीद- कर दिये थे न?" इतना कहकर उसने एक-एक चीज़ साइन, लैवेण्डर, कंधी, इत्रदान, मौजे उठा-उपकर माता के सामने पटक दिये।
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