अमर अभिलापा " गिडगिढ़ाकर दया-प्रार्थना चाही, पर उसके मुँह से एक भी शब्द न निकला । उसकी जीम तालू से सट गई थी। उसके डवस्याये हुए करुणापूर्ण नेत्र, अध-खुले दाँत, बँधे हुए हाथ निरन्तर भाई से दया की प्रार्थना कर रहे थे। पर भाई का लक्ष्य क्या उधर था? उसके हाथ इस प्रकार चल रहे थे, मानों कोई लकड़हारा कुल्हाड़ी से लकड़ी काट रहा हो। पालिका अन्ततः हाड़- मांस की बनी ही थी। दुखिया तो थी, पर कोमलाङ्गी भी थी; परन्तु कोमलाही होने से क्या हुआ ? फोर लोहा भी स्थिर होकर चोट को नहीं सह सकता है। मार लगते-लगते उसकी चमड़ी उघड़ गई। पीठ पर, छाती पर, गले में, मुँह पर नीले- नीले दाग उपड़ पाये । बहिँ खून से लतपत होगई। उसके दोनों हाथ, जो अनुनय की भीख मांगने को ऊपर उठे हुए थे, 'शिथिल होने लगे, और अन्त में धरती में आ-गिरे। छटपटाना भी कम हुआ । थांखें बन्द होगई । वालिका मूर्छित होकर निरन -पड़ गई । दया के धाम, संसार के स्वामी ने ऐसे ही अवसर के लिये मूळ को सृष्टि की है। निर्वल, निस्सहाय प्राणी जब किसी तरह वेदना को सहन नहीं कर सकता, तव मूर्छा कैसी प्यारी सखी का काम देती है-यह वर्णन करने कीबात नहीं है। हरनारायण ने देखा, कि लड़की मूछित होगई। तब उसका हाथ धीमा पड़ा-वह रस्सी एक पोर फेंककर हाँफने और बड़- बहाने लगे हतभाग्य, कुलचोरनी कलादिनी! तु जन्मते ही क्यों न मर गई थी!!! .
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