पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१५६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१५२ अनर अभिलापा "तुम्हारे घर में पाप है ही क्या?" "वढी आफ़त है तुम्हारी एक-एक बात गर्मा-गर्म होती है।" "पर तुम ऐसे शीतलपरसाद-कि गर्मी छू नहीं जाती।" हरनारायण ने देखा, यह केवल उपहास ही नहीं है,- कुछ मामला है। इसी रोककर बोले- 'बाल फिर कोई सुखर्जी लाई हो क्या?" अब हरदेई ने एकदम मामला साफ़ करने की गरज से एक तोड़ा-मरोदा काग़ज़ इनके हाथ में देकर कहा-"लो, इसे पढ़कर सो देखो।" हरनारायण ने उसे हाथ में लेकर हँसते-हँसते कहा-"हम बिना पढ़े ही समझ गये-आपके भाई साहय की चिट्ठी आई दीखती है । कह डालो, कब की तैयारी है ? मुझे तुम्हारी रुख- सत मजूर है,-वस, अब तो खुश हो?" हरदेई ने कपाल ठोककर कहा-"हाय कर्म ! इसे पदो तो, या मनमाना मतलव समझकर ही छुट्टी पाई ?" हरनारायण अभी तक मौन में पा रहे थे। वोले-"तो इस अँधेरे में कैसे पढ़ा जाय ? जरा मुंह पास लाओ, शायद उसकी रोशनी में पढ़ सकूँ" हरदेई ने मुँझलाकर कहा-"भाड़ में जाय तुम्हारी हसी! भाठ पहर की भी क्या हँसी?" "तो फिर तुम्ही सुना दो-इसमें क्या लिखा है !" अब की बार हरमई को क्रोध बढ़ थाया। उसने तदपकर 1