उरन्यास १४९ सहेलियां, ननंद,निटानी-योरानी-मानो उसके लिये कोई नहीं। सब थाई, पय ने मिस-मित भाँति से सहानुभूति प्रफ्ट की, पर वह बोली नहीं, रोई भी नहीं, कुछ कहा भी नहीं-सवत् धरती में पड़ी रही। वह फमी-कमी अपने बच्चे को चौर निठा. नियों के बच्चों को अत्यन्त सतृष्ण नेत्रों से देखा करती, पर उन्हें छूती नहीं, बात भी नहीं करती । सदी-गमी, भूख-प्यास, सुख- दुःख से परे-मानो यह विदेह-रूप में सांस ले रही थी। जीवन- बन्धन उसका टूट चुका था, वह मानो जीवन्मुक्त थी। धीरे-धीरे शोक पुराना होने लगा । कुमुद कुछ खाने और अति संक्षेप में यातचीत करने लगी। घर की स्त्रियाँ भी धीरे-धीरे उस दुखिया के दारुण दुःख को रपेक्षा से देखने लगीं । परोदों ही तो विध- चाएँ हिन्दू-घरों में इस दारुण दुःख को लेकर नी रही हैं। फिर इसमें नवीनता क्या है? दो मास व्यतीत होगये । इसी दौर में कुमुद में तो यह परिवर्तन भागया कि उसका वह हास्य सदा को उड गया। दूसरे वह किसी भी सखी-पहेली से बात तक न कर, प्रायः मौन ही रहने लगी। उधर घर की सभी स्त्रियों के मन में उसके प्रति भादर और प्रेम का भाव नर होगया । कुमुद विद्रुपी थी। वह सब-कुछ समझ गई; और सब-कुछ सहने को तैयार भी होगई। पति की सभी कमाई अपने आभूपण-सहित उसने दान-पुण्य में मर्च कर दी। सिर्फ उनके यीमे के १० हजार रुपये यच्चे के समर्थ होने पर उसकी शिक्षा के लिये बैंक में उठा रखे। धीरे-
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