पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१४०

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उन्नीसवाँ परिच्छेद कुपथ पर पैर रखना ही बुरा है । एक बार जो गिरा, फिर सम्हल नहीं सकता । मकड़ी के नाले में मक्खी फंसकर जितना ही निकलने के लिये छटपटाती है, उतना ही अधिक हँसती है। अभागिनी वालिका भगवती की भी यही दशा हुई । गत परि- च्छेदों में जिस घटना का वर्णन किया गया है-उसे पान तीसरा ही दिन है। छजिया फिर उसे लेने को या-उपस्थित हुई -उसका प्रस्ताव सुनते ही भगवती भयभीत रष्टि से उसके मुख की ओर ताकने लगी । छलिया ने कहा- "इतना डरना किसलिए है ? उस दिन किसी को कुछ खवर हुई ? जव पहला मामला ही फतह होगया, तो श्रव तो बात ही क्या है ?" इतना कहकर छनिया चुप होगई । भगवती श्रव भी उसी प्रकार उसके मुख को ताक रही थी। छलिया ने धीरे-से कहा-"याज चलोगी न?" भगवती ने खीझकर कहा-"ना, मैं कभी न जाऊँगी। तु जाकरसाफ कहदे, और खबरदार, जो मेरे पास कुछ चीज़-बस्त लेकर आई तो।" छनिया ने अचरन की मुना बना, और ठोड़ी पर उँगली रखकर कहा-"ऐ है ! बढ़ी नादान विटिया बनी हो-रोज़-रोज़