१३२ अमर अभिलाषा भेज देंगे, पर जरा तवियत वो ठीक होने दो भगवती! तुम इतना क्यों घबरा रही हो?" "मुझे बड़ा भय मालूम होरहा है।" भगवती ने कातर धष्टि से उसकी ओर देखकर कहा । युवक ने उसका हाथ पकड़ लिया। "यहाँ घर भर में कोई नहीं है, डरने की कौन बात है? चलो, जरा वहाँ चलकर बैठो।" इतना कहकर, वह पलँग की तरफ उसे ले चला। भगवती भी मन्त्र-मुग्धा की तरह चलकर जा बैठी। मानों उसे कुछ दीखता-सूझता नहीं है। हरगोविन्द ने उसकी चादर उतारते-उतारते कहा-"बड़ी गर्मी है। कपड़ा हलका करो! गर्मी से तुम्हारा जी बड़ा खराव होगया है।" भगवती ने चादर को दृढ़ता से पकड़कर कहा-"ना, ना, चादर मत उतारो ! अच्छा, अब मैं नाती हूँ।" धूर्त युवक ने मानों वाव ही नहीं सुनी। उसने एक हाथ से पला करना शुरू किया, दूसरे हाथ से उसके वस्त्र हटाते हुए कहा -"इस तरह घबराने से कैसे काम चलेगा? तुम्हें मालूम नहीं है भगवती, तुम्हारे लिये मैं कितना तरस रहा हूँ ?" भगवती ने बात काटकर, उसका हाय हटाते हुए कहा- "देखो, ये सब वाव चिट्ठी में लिख भेजना, अव नाने दो, बड़ी देर हुई । कोई भा न जाय ।" "ऐसी दुपहरी में कौन आवेगा? पगली, बाहर छजिया . 1 1
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