उपन्यास १३१ कुत्सित प्रसन से अपनी लेखनी को काला किये बिना नहीं रह सकते। धान पूर्णिमा का पर्व है। थान भगवती की माता पतित-पावनी गहा में गोता लगा रही है, और थाल भगवती घोर पाप-पह में मग्न होने को, छलिया के साय घर की योदियों से बाहर जारही है। कैसी फटु फया है, कैसी दुःखद घटना है ! यदि भगवती हमारी भनी वा पुत्री होती, तो हम फदाचित् इस यात को ऐसी शान्ति के साथ न पद सकते। मान लें, कि समस्त भारतीय देवियाँ हमारी रूगी यहन-बेटी है, तो निक्षय भगवती के इस अधःपतन पर भापके हृदय में भयर वेदना का 'अनुभव होगा। ठीक दुपहरी मलमना रही थी-जय छुलिया के लाय भगवती ने हरगोबिन्द के घर में प्रवेश किया । अपने शयनागार मेहरगोविन्द पड़ी उत्कण्ठा से उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। भीता-चकिता भगवतो ने उसी कोटरी में प्रवेश फिया। एलिया तो याहर ही से अन्तान होगई थी। भगवती का सिर घूम रहा था। पहले तो उसे कमरे में कोई न मालूम हुआ, पर फिर देखा-दरगोविन्द सामने खमा, तृपित नेत्रों से उसे घर रहा है। अय वो उसे पसीना छुट पड़ा। हरगोविन्द ने तमी 'पास मा, उसका हाय पकदकर कहा-"दर किस यात का है भगवती" "तुम मुझे घर मेन दो । देखो, मेरा सिर घूम रहा है।" हरगोविन्द ने कहा-"अच्छा, तुम्हारी इच्छा होगी, तो
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