अमर अभिलाषा दुःख में क्या बान बचती ? सो तू अपनी बेवकूकी से उन्हें भी नाराज़ कर रही है।" भगवती की दशा लज्जा, भय, अनुताप और दुःख से अत्यन्त शोचनीय होरही थी। वह वारम्बार कुपथ पर पैर रखने से डर और हिचक रही थी। पर भब उसे कुछ सूमता नहीं था। अन्त में उसने स्थिर करके कहा-"परसों माँ पूरनमासी नहाने गगानी नावेगी । भैया भी साथ जावेंगे। घर में भाभी ही रहेगी। चाचाजी हलके में गये हैं ही। तभी दुपहरी को चलूंगी।" छजिया ने मन की खुशी मन में ही दबाकर कहा-"तो यही वात पक्की रही न?" "हाँ-हाँ, पक्की ! पर छजिया, किसी को खबर न हो।" इतना कहकर भगवती ने उसके पाँव पकड़ लिये। बिपा 'इस बात से खातर-नमा रख' कहकर चम्पत हुई। सत्रहवाँ परिच्छेद -:08:- . पाठक, इस परिच्छेद में जिस घटना का वर्णन है, उसकी इच्छा हमें तनिक भी नहीं है। पर क्या करें । लेखकों का माम्ब ऐसा नहीं होता, कि इच्छा करने से ही वे किसी प्रकृत घटना को छिपा जायें। उन्हें इच्छा से, या अनिच्छा से, जिस तरह हो- सब यात यथावत् कहनी पड़ती हैं। हम भी इस घृणित और
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