उपन्यास १२९ "मरी बावली, कौन देखेगा? किसी को खवर भी न होगी। इसका जिम्मा मेरे सिर रहा !" भगवती चुपचाप की रही । छजिया ने कहा- "मजे से रस के पूंट पिवेगी तू-और सिर सपाना पड़ता है मुझे ! अभी तुझे चस्का नहीं पड़ा है; नहीं इतना सोच-विचार न करती।" इतना कहकर दुनिया ने हंसकर भगवती को चुटकी भरली। भगवती के मुख-मण्डल से हसी फोसों दूर थी। वह चुपचाप सदी कांप रही थी। छविया ने कहा-"अब जल्दी नवाव दो, तो नाऊँ । देखो, कोई देख लेगा।" कोई देखता तो नहीं है इस भय से भगवती ने भाँख उवाकर चारों घोर देखा । फिर कहा-"अच्छा, फिर पाइयो । तब सोचकर पस्का जवाब देंगी।" "वावली हुई है व ? इतने दिन से टाल रही हूँ, थान उन्होंने कहा है कि पक्का जवाब न थावेगा, वो पास ही रस्सा- सोद हो जायगा । अव तू देख ले-रान-रानी बनकर मौन उदाना मंजूर है, या मुठे टुकड़े खाकर कुत्तों की तरह उन्न काटना । मां-बाप किसी का कोई नहीं है-सव मतलय के हैं। भभी तू सुहागन होती, तो भाभी कैसा आदर करती, पर भव तू देख ही रही है-कैसी-कैसी विपता पड़ रही है ! भला हो बेचारे इरगोविन्द का, जिसके नचं से बी रही हो, नहीं इस ९
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