१२८ अमर अभिल्लापा ma- थब की यार छलिया ने दूसरा शव निकाला। उसने कहा -"समम-सोचकर बातें करो भग्गो बीयी, पहले तो तुमने माल उड़ाये, अब काम के पश्त 'ना-ना' करती हो। इस तरह वोन चलेगा । तुम्हारे याप को सब खबर फरदी जायगी । मई की जात को जानती नहीं -उसका कुछ नहीं बिगडता, पर तुम्हारी सी.. पसली चूरा-चूरा हो जायगी। मुंह काला होगा, वह थनग! वही मसल होगी, न माया मिली न राम!" दवा कारगर हुई । छलिया का एक एक शब्द तीर की तरह भगवती के कलेजे में पार होगया। भय, उद्वेग, चिन्ता से वह पागल होगई । वह हाथ जोड़, घुटनों के बल छजिया पैरों में गिरकर रो-रोकर कहने लगी-"छजिया, मेरी मच्छीद्दजिया, मेरी जान यचा! छजिया, मैं तेरी फाली गऊ हूँ !" इतना कहकर भगवती उस नीच स्त्री के पैरों पर लोटने लगी। जिस प्रकार प्रफुल्ल नेत्रों से शिकारी अपने वश में भाये हुए शिकार को देखता है, ठीक वैसा-ही भाव धनिया के नेत्रों में फूट- पड़ा। अयोध बालिका का हाथ पकड़फर उसने उठाया, और दिलासे के स्वर में कहने लगी-"मैं तो पहले ही कह चुकी हूँ, कि मेरे मन के माफिक चलेगी, तो कुछ डर नहीं है; सब काम ठीक बैठ जायगा । जब तक मेरा दम है, मज़े में मौन उहा। कित की मजाल है, जो तुमसे भाँख भी मिला।" भगवती ने रोते-रोते कहा-"तो मैं वहाँ कैसे जाऊँगी छजिया ? कोई देखेगा, तो क्या कहेगा?"
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