उपन्यास १२७ "अपने भाई-मौनाई को ही देखले ! तेरा जन्म क्या इसी अंधेरी कोठरी में सड़ने को है ? कैसा चाँद-सा मुखड़ा है !" इतना कहकर, छनिया ने भगवती के सुख पर हाथ फेर दिया। भगवती की जीम में बोलने की शक्ति नहीं थी। पसीना 'पनाले की तरह बह रहा था। छजिया फिर कहने लगी-"और वह भी कैसा जामर्द है। मूल नहीं कहूँगी-दिन-रात तेरा ही नाम उसकी जदान पर रहता है। वेरे धागे रुपये-पैसे को तो वह कुछ समन्ता ही नहीं। वो-वो रेशमी ऐसी सादी लाकर रखी है, कि देखा करें-पर मेनी इसलिये नहीं, कि कोई देखे-भाले तो नाम धरे। जिस दिन उसे पहनेगी, तू-ही-तू दीखेगी।" भगवती येसुध-सी होरही थी। उसने वात काटकर कहा- "अब तू ना । देत, कोई सुन न ले।" "सुनेगा कौन? अच्छा, तोवता-एक तवाय मिलना चाहिये।" भगवती ने घवदाकर कहा-"नहीं, नहीं, मैं नहीं जाऊँगी।" इतना कहकर भगवती छलिया को घसा देकर जाने का संकेत करने लगी। छलिया ने हाथ मटकाकर कहा-"यह कैसी बात बीवी? न जानोगी, तो कैसे बनेगा? यह इतना खर्च-परेशानी तो इसीलिये उठ रहा है।" भगवती ने वात काटकर कहा-"नहीं-नहीं, मैं न नाऊँगी। इन्हें तू लेजा, फिर मत लाइयो-मुझे नहीं चाहिये।"
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