सोलहवाँ परिच्छेद सन्ध्या होगई। धीरे-धीरे अन्धकार फैल रहा है। गायें रम्भा रही हैं। उनके दुहने का मधुर शब्द सुनाई दे रहा है। ऐसे समय में जिया नायन ने जयनारायण के घर में प्रवेश किया । गृहिणी उस समय गौ-सेवा में लग रही थी, और हर- देई रसोई बना रही थी। नारायणी आँगन में पीदी पर बैठी थी। अभी वह दुर्वल थी। बैठी-बैठी यह किरपू और सुनिया को दूध-बताशे से रोटी खिला रही थी। भगवती अपनी कोटरी में 'बैठी, कुछ अनमने भाव से दरी की डोरी वट रही थी। कमरे में अँधेरा छागया था, पर वह बैठी ही थी। जिया ने वहीं पहुंच- कर कहा-"अरी, क्या कर रही है?" भगवती ने चमककर छनिया की ओर देखा। कुछ देर तफ 'वह उसी की ओर देखती रही, फिर गिडगिडाकर कहा- "निया ! छजिया !! तू इस तरह मेरे पास मत पाया फर। देख, मैं तेरे हाथ जोड़, तू रोज-रोज़ यह सब क्यों ले आती है ?" छजिया ने शांचल की गाँठ खोलते-खोनते हँसकर कहा- "पगली कहीं की ! तुमसे सौ बार तो कह चुकी हूँ-हर किस बात का है ? मुझे क्या तैने योंही समझ लिया है ? हवा को तो खबर होती ही नहीं है। इतना कहकर, उसने ताजी मिगई
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