उपन्यास १२१ 'अब मुझे चिन्ता क्या है ? भगवान् ने भाई को भेज दिया है।" "तभी वो कहती हूँ, इतना काम न किया कर । हो, सुना था, आज वे कुछ बीमार हैं।" सुशीला ने सुई रोककर कहा-"किसने कहा ?" "मेरा एक रिश्ते का लड़का वहीं पढ़ता है, वह कहता था। उसका कहना था-चे एकाएक ही बीमार पड़ गये हैं।" "कल ही तो आये थे भले-चङ्गे।" "शरीर का क्या ठिकाना ?" "और अभी पाने की बात भी थी। उन्हीं की तो कमीज़ सीरही थी।" बुढ़िया घबराई । उसने कहा-"देखो भावेंगे, तो मालूम पड़ जायगा, लड़का मूला तो नहीं।" "चाची, एक बार उसे भेनकर हाल-चाल मँगवा तो लेती।" "अच्छी बात है, मैं अभी जाती हूँ।" यह कहकर बुढ़िया उठकर नीचे आई। वह द्वार पर प्रकाशचन्द्र की प्रतीक्षा में बैठी रही। प्रकाशचन्द्र ने अाते ही हँसकर कहा-"कहो चाची, भाव तो हार पर ही बैठी हो ! सुशीला भीतर है न?" "कहीं पड़ौस में किसी के घर गई है। अभी तक नहीं लौटी, उसी की इन्तजार में बैठी हूँ।" प्रकाश भीतर नाते-जाते रूक गये। कहा-"वहाँ क्यों
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