१२० अमर अभिलापा -- - ले लूंगा। हुजूर नाराज़ न हों, तो इनाम की बायत कुछ अजें" राजा साहब ने जेब से कुछ नोट निकालकर फेंक दिये । वह व्यक्ति मनाम फरके चल दिया। निस समय उपरोक्त यात-चीत हो रही थी। दोपहर का समय था। वह व्यक्ति सीधा चलकर वृद्धा के पास थाया, और बड़ी देर तक बात-चीत करता रहा । उसने वृद्धा के हाथ में कुछ रसाम भी धर दी। उसने उसे चुपचाप लेकर कहा-"काम बडा सङ्गीन है । मैं उस लड़के से बहुत डरती हूँ। यदि उसे कुछ पसा लग गया, तो बुरा होगा।" "तुम खातिर जमा रक्खो-तुम्हारा बाल भी बांका न होगा।" यह कहकर वह श्रादमी चला गया। उस थादमी के चले जाने के बाद ही बुढ़िया ने उपर नायर देखा-सुशीला सोने के काम में लगी हुई है। उसने पास बैठफर मोठे स्वर से कहा-"हर वक्त न सिया कर। कभी झुरसत से भी बैठा कर, फपड़े लत्ते भी साफ़ रखाकर-~~यह भी कोई दम है। श्रय तो तुम्हें खर्च की वैसी ही नहीं।" "नहीं चाची, भाई साहब पर इतना भार दालना क्या अच्छा है ? मुझे अपनी जरूरत पूरी करने के लिये महनत काना ही अच्छा है।" "पर महनत में मर मिटना तो अच्छा नहीं।" "चाची, अब तो मैं पहले से चौगुनी महनत कर सकती हूँ।
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