उपन्यास ११७ । "पान पच्छिम तर चली गई थी। वहाँ हरगोविन्द मिल गए। उन्होंने आवाज़ देकर बुलाया, और मिठाई बाँध दी ! वेचारे बढ़े भले आदमी है।" इतना कहकर उसने भगवती की ओर तिरछी नज़र से देखा । भगवती फाँप रही थी। बलिया ने कहा-“ले री भगो ! तू भी ले ! मेरे जाने तो जैसे ये वालक, वैसी भगो।" भग्गो ने कहा- मैं तो नहीं लेती।" "वाह ! नहीं कैसे लेगी?" इतना कहकर छलिया भगवती से लिपट गई गृहिणी ने कहा-"रहने दे छलिया ! उसके भाग में मिठाई खानी होती, तो उसका भाग ही क्यों फुटता ?" छलिया ने कहा-"तुझे मेरी सौगन्ध ! न लेगी, वो मेरा जी बढ़ा दुखेगा।" भगवती ने कहा-"नच्या ठहर।" इतना कहकर एक लड्डू उठाकर कहा--"बस!" "वस नहो, सत्र ले। मेरे और कौन बैठा है !" इतना कहकर वह दोना वहीं पटककर अपनी जगह आ बैठी। गृहिणी ने सीते-सीते मुँह मारी करके कहा-"इसी लौंडे से व्याह की बात-चीत पछी हुई थी। जो यही होता, तो भाज मेरी मम्गो को कौन पाता?" गृहिणी के नेत्रों से पानी टपक पड़ा। उसे हाय से पोंछकर वह फिर सीने लगी। कनिया ने कहा-"अब पछताने से क्या है जी! विधाता ने जहाँ निसकी जोड़ी रखी है, वहीं काम होता है। ऐसे वर
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