११६ अमर अभिलापा. ऊपर तक कुरतों में दाव दूंगी-थोड़े से न बनेगा।" थोड़ी देर तक सब हँसते रहे । सुखिया ने इस उपहास का कुछ मी अभिप्राय न समझा, बढ़ी देर तक सव का मुंह देखती रही। फिर वह भी हंस पढ़ी। 'जैसी यह पयार पीठ पुनि तैसी दीजे'-इसका उसने भी अनुकरण किया । पर तुरन्त ही उसे अपने कुरते की याद आई । उसने मचलना शुरू किया । बलिया ने दूसरे उपाय का अवलम्यन किया । उसने अपने आँचल में से एक गाँउ खोली । सव ने देखा, उसमें मिगइयों का दोना है। भगवती उसे देखकर सहम गई । छजिया ने एक दृष्टि उस पर डालकर कहा-"पारे किरपू, तू भी ले, और सुखिया, ले, तू. मिलई खा । कुरते का क्या फरेगी ?" किरपू और सुखिया दोनों पा जुटे । छजिया ने दो-दो लड्डू, दोनों के हाथ में धर दिये । गृहिणी ने कहा-"यह क्या करती है, छलिया ? ठहर, ठहर!" इतना कहकर उसने किरपू और सुखिया को पकड़कर अपनी वरफ खींच लिया। छजिया ने कहा--"ताईनी ! तुम वालकों के बीच में भांजी मत मारा करो। वाह ! ले रे किरपू ! यह गुदिया.और लेना।" गृहिणी ने कहा-"कहाँ से लाई है ? सब यही लुटा नायगीय विट के लिये भी ले वायगी ?" . . ."षि क्या इनसे भी ज्यादा है ? लेरी सुखिया ।" कहकर एक पेड़ा उसने उसके हाथ में पकड़ा दिया। फिर उसने कहा-
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