११२ अमर अभिलापा हलकर, धौर लैन मटकाकर, फिर उँगली से अपने कुरते की तरफ सङ्केत किया। अब की बार बालिकाने कुनकुनाका कहा-" ! हम तो कुशता लेंगे।" दादी उसकी बात पर कान न देकर, कुरता सी रही थी। बालिका ने यत्र निष्पन नाते देखकर, मिर भाई की तरफ हताश दृष्टि से देखा। किरपू पूरा नटखट था, उससे फिर उँगली से संकेत करके भानो कह दिया, कि-"देख, यह रहा, हमारा अब तो सुखिया ने अमोघ शव सँभाला । वह फैल भरकर धरती पर लेट गयी। दादी ने कोप से उसे देखते-देखते कहा-"अच्छा सुखिया तू न मानेगी? व्हर, अभी गंगासहाय बावले से तेरे कान कतर-- पाऊंगी। तू बद्री दिगढ़ गई है-भता?" सुखिया ने डर से एक दार अपने कानों को अच्छी तरह टोल लिया, और प्रि रोने मचलने लगी। उसके रोने की आवाज़ सुनकर भगवती धीरे-धीरे वहाँ पाई। उसने माँ से कहाँ "क्या मान नचा रस्ता है?" किम ने संक्षेप से सब दास्तान एकदम सुना दी। उसने उठकर, भगवती का प्राचल पकड़कर कहा-“वीयी! इमाला कुलवा है-धुखिया का नई । बोलो है ?" भगवती ने सुखिया को गोद में उसालिया। उसकी धूम
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