उपन्यास १११ "वस, अब पाहीगी-थोड़े दिन और है।" किरपू ने प्रसन्न होकर कहा-"अच्छा।" इतने में ही मुखिया था पहुंची। किरपू ने ताली बनाते-बनाते, कुरते की वरफ़ उँगली उठा- कर कहा-"देख, छुखिया-हमाला कुलता!" सुखिया हाथ की गुदिया को फेंककर बोली--"का है ?" किरपू ने फिर उँगली कुरते पर रखकर कहा-"ये रहा । हम दादा के छंग तीनों के मेले पै इछे पैन के नांगे।" सुखिया ने भाई के पास बैठने-बैटते कहा-"हम भी नांगे दादा के इंग।" इतना कहकर उसने कुरते की याँह से नाक पोंछ डाली। "हम नया झुलता पैन कै नांगे।" "ौल हम ही नया कुलता पैन कै नांगे।" "तो तु भी दिलवाले–नया कुलता।" सुखिया ने दादी से कहा-"दादी, हमें वी कुलता छी दे।" दादी ने तनिक धुढ़ककर कहा-"चुप रह ! लौंडिया कुरवा नहीं पहना करतीं।" वालिका ने अचरज-से पूछा-"क्यों?" "हौवा पकड़कर ले जावेगा।" वालिका पर आतङ्क छागया। वह चुपचाप बैठी, दादी का सीना देखती रही। कुछ कर्तव्य न सूझा । उसने हताश होकर भाई की तरफ देखा। किरपू ने उसे रोनी सूरत में देखकर,
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