उपन्यास युवक ने उसका हाथ पकड़कर कहा-"तो क्या तुम ऐसी गली की भिखारिन की तरह मारी-मारी फिरवीं? तुम्हें क्या भाभी की जूतियाँ उठानी पड़ती ?-मूछे टुकड़ों का सासरा तकना पड़ता ?" भगवती रो उठी। बालिका विना रोये कैसे रह सकती थी? उसके सामने उसका सब कष्ट रख दिया गया था। उसने रोमोते कहा-"नो भाग्य में लिखा है, वही होता है।" "वही तो मैं कहता हूँ। तुम्हारे पिता जिद न पकड़ने, तो पाज मेरी सारी सम्पत्ति तुम्हारी होती-मैं तुम्हारा दास होता; निनकी तुम गुलामी करती हो, वे तुम्हें फूल सी तरह हाथों में लिये फिरते ! सुहागिन क्या तुम्हें देखकर मुंह छिपाती!-अपने- अपने वालकों पर छाया भी न पड़ने देतीं? वे तुम्हें सखी बनाने को ललचा उठती.........?" भगवती के मन में वफान उठने लगा। उसने स्पष्ट देखा- एक पर्वत के शिखर पर सुख के ढेर लगे पड़े हैं, पर वहां पहुंचने का द्वार बन्द होगया है। नव द्वार खुला था, तो उसके बाप ने उसे नहीं जाने दिया था, पर उस ओर देखना भी वृथा है। भगवती ऐसी ही बात सोच रही थी। अचानक उसे चेत हुथा, और "मैं नाती हूँ" कहकर वह चलदी। युवक ने उसके पीछे चलते-चलते कहा-"पबिया को मेनूंगा । देखो, जिससे यह बात कोई न जाने....." भगवती ने भयभीत होकर कहा-"तुम मेरे पीछे मत जानो। कोई देख लेगा।"
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