उपन्यास १०५ , और निकट पाकर उसके कन्धे पर हाथ रखकर कहा-"तुमने यह सूरत कैसी बनाई है ?" "क्यों? जैसी थी, वैसी है।" "तुम्हारे व्याह पर मैंने तुम्हें देखा था। तब क्या तुम ऐसी ही थी ?" सखी का नाम सुनने से नो प्रफुल्लता अवोध बालिका के मुख पर पाई थी, इस बात को सुनकर एकदम उड़ गई । उसके नेत्र भर पाये । तत्र वह वालिका नहीं रही थी, अपना दुःख सम- मने लगी थी। उसने अपना भाव छिपाने को उधर मुंह फेर लिया। गोविन्दसहाय ने निकट श्राकर कहा-"त्यों, चुप क्यों हो- गई, मुँह क्यों फेर लिया ?" भगवती के नेत्रों से आँसू टपक पड़े । उसने मुँह फेरे-ही-फेरे महा-"वे दिन और थे, यह दिन और हैं। राम जिस तरह बस्ने, उसी तरह रहना पड़ता है।" गोविन्दसहाय ने देखा-वालिका बहुत-कुछ समझती है, उसकी वाणी काँपती और भरी हुई थी। उसने उसका हाय पकड़कर कहा-"यरे ! तुम रोती हो?" भगवती ने एकदम उसकी ओर देखकर कहा-"नहीं तो।" पर भी उसके थांखों से दो आँसू और भी टपक पड़े। उसने यात फेरने के ढग से कहा, "तुमने मुझे क्यों बुलाया था ?" क्षणेक ठहरकर युवक ने कहा-"तुम्हें घर के लोग अच्छी तरह नहीं रखते ?-वहाँ तुम्हें कुछ दुःख है ?"
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