उपन्यास 28 को अत्यन्त कौतूहल से घेरे खड़ा था। बात कौतूहल की थी। एक सरला अवोध बालिका का भान रस-रहस्य में प्रवेश है। सुखदेई, हरदेई, तारो, गुलाबो, नन्ही, चुन्नी, बदामो, ऊदी, चमेली, खेड़े की सभी प्रसिद्ध युवतियों का वहाँ जमघट था। गाँव-भर के घर युवती-हीन हो रहे थे। खैर इतनी ही थी कि समय दिन का था, और सब के पतिगण अपने-अपने काम-कान में फंस रहे थे। घर-घर में मान धेरा है, यह किसी को नान न पड़ा। एक ओर कुछ वृद्धा और प्रौदा स्त्रियाँ गृहिणी को धेरै बैठीं बहू की तारीफ कर रही थीं । गृहिणी हँस-हँसकर सब का स्वागत- सत्कार और सम्मान कर रही थी। ऐसी ही चुहुल की हाट में चम्पा के साथ भगवती ने घर में प्रवेश किया। भगवती अत्यन्त सकुचा रही थी, पर चम्पा उमंग में मदमाती हो रही थी। उसे अपने गौने के दिन की मधुर दुर्दशा भूली नहीं थी। भगवती को भी यह वात याद थी, पर उसकी अवस्था ऐसी नहीं थी, कि वह किसी सुखकर विषय को सोचकर सुखी हो सके । भगवान् मुख सब ही को देते हैं, पर सुखी सब- किसी को नहीं कर सकते । श्रस्तु, जैसा पाठकों को मालूम होचुका है, चम्पा ज़रा चटकीली तबियत की थी। सो घर में प्रवेश करते ही उसकी सखी-पहेली उसे घेरफर बहू के पास ले चलीं। कोई उसे चुटकी देने को लपकी, कोई गले में लटकने, किसी ने पकड़कर जरा मसक देने का इरादा किया, पर ज्यों-ही सब की दृष्टि उसकी संगिनी पर पड़ी, सब सहनकर ठिटक गई-सव की काना-फूसी
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