पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/७२

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प्रयम कोशस्थानः पातुनिर्देश ५७ दोनों हैं । यह नप्यन्दिक नहीं है क्योंकि यह नैष्यन्दिक तभी होते हैं जब यह विपाकज या औपचयिक होते हैं। (३) शब्द औपचयिक है क्योंकि अनुपचित काय होने से शब्द का सोप्य्व नहीं होता। यह नैष्यन्दिक भी है। यह विपाकहेतु से उत्पन्न नहीं होता क्योंकि शब्द को प्रवृत्ति छन्द से (छन्द, २.२४) होती है।४ (विभापा) आक्षेप--प्रज्ञप्तिशास्त्र कहता है कि "महापुरुप (३.९८) का यह लक्षण जिसे [७०] 'ब्रह्मस्वरता' कहते हैं पारुष्य-(४.७६सी) विरति के पूर्ण अभ्यास नो निर्वर्तित होता है"।' अतः शब्द विपाक है। शब्द का परम्पराभिनिर्वर्तन प्रथम मत--परम्परा में तीन क्षण है : (१) गर्म; (२) इस कर्म से जात महाभूत जो विपाकज है; (३) शब्द जो महाभूतों से उत्पत्र होता है। द्वितीय मत - परम्परा में पांच क्षण हैं : (१) गर्म; (२) विपाकज महाभूत; (३) ओगवयिक महाभूत; (४) नेप्यन्दिक महाभूत; (५) शब्द। अतः शब्द 'विपासन' नहीं है क्योंकि यह कर्म के अनन्तर ही प्रवृत्त नहीं होता (विभाषा)। आक्षेप - इस युक्ति के अनुसार कायिकी वेदना (२.७) जो कर्म के अनन्तर ही उत्पन्न नहीं होती किन्तु कर्म से उत्पन्न महाभूतों के अनन्तर उत्पन्न होती है (३.३२) विपाकज न होगी। उत्तर -- किन्तु प्रतिसंवेदन की इच्छा से वेदना का प्रवर्तन नहीं होता और शब्द की प्रवृत्ति भाषण की इच्छा से होती है। यदि इसकी प्रवृत्ति इच्छा से होती तो यह विपायज न होती। (४) अप्रतिष (१.२९ बी) आठ धातु अर्थात् सप्त चित्त-धातु और धर्मधातु नन्दिक और विपाकज हैं : नेप्यन्दिक, जब वह सभाग हेतु और रावनग हेतु से (२.५२, ५४) जनित होते है। विपाकज, जब वह विपाक हेतु (२.५४ सी) से जनित होते हैं। यह औपनयिक नहीं है, क्योंकि अरूपी धातुओं में संचय का अभाव है। (५)अन्य धातु अर्थात् रूप, गन्ध, रस,स्प्रष्टव्य यहचार जिनका पूर्व वर्णन नहीं हुआ है. विविध है : विपापाज, जब वह इन्द्रियाविनिर्भागी होते हैं (१.३४); भोपनायिका और नेप्यन्दियः । २ चक्षुरिन्द्रिय रूप-प्रसाद के अस्तित्व के एक क्षण या अवस्या का हम विचार करते हैं। इस रूप का एक प्रदेश पौराण फर्म फा विपाफ है: एक अन्य प्रदेश माहार से प्रवृत्त होता है। यह सर्व रूप चक्षु के पूर्व क्षण या अवस्या का निष्यन्दफल है। किन्तु यह पूर्व क्ष या अवस्या स्वतः वर्तमान क्षण फी उत्पाद करने में समर्थ नहीं है: वास्तय में मृत का चातु निप्यन्द से अनुवर्तन नहीं करता। अतः चलतु का लक्षण नेप्यन्दिफ फा नहीं है। इसको विपरीत आप काप के अस्ति फो । मृत्यु के अनन्तर इसका अस्तित्य रहता है । अतः या पूर्व पर से लेकर उसके अस्तित्य के प्रत्येक क्षण फा निप्पन्दफल है। ४.२९ देखिए। रुपायत्यु, १२.४, १६.८ रुप फो विपाय नहीं मानता। . पिभापा, ११८, १ में ९ हेतु परिगणित । यनुवन्य तृतीय रेतु उद्धत करते है। । पालोपुनीय और विभज्यवादिन् फा मत है जिनपिपारज है। पायावत्यु, १२, ३ में महातांधिकों द्वारा उक्त बीप, ३.१७३ से तुलना पाणिः मड़ी पिपाको। १