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रहा है, ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। राज्यवर्धन के वीररस का वर्णन करते हुए वाण ने लिखा है-- दात् परामुशन् नकिरगस लिलनिरैः समरभारसंभावनाभिषेकमिव चकार दिऊनाग- कुंभकूटविकष्टस्य बाहु शिखरकोशस्य वामः पाणिपल्लवः (पृ० १८३) । इस श्लेपात्मक बान्य के तीन अर्थ हैं, पहला कोश या तलवार की म्यान के पक्ष में, दूसरा कोश या दिव्य परीक्षा के पक्ष में, और तीसरा कोश अर्थात् अभिधर्मकोश ग्रन्थ के पक्ष में! वाण का प्रत्येक शब्द तीनों अर्थों में सर्वथा रतार्थ है, जैसा कि विस्तार से हमने अपने "हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन" ग्रन्थ में दिखाया है (पृ० १२०-१२२)। यहाँ तीसरे अधिभर्मकोश सम्बन्धी अर्थ पर विशेषध्यान देना उचित है । इस वाक्य में 'दिङनागकुंभकूटविकटस्य, वाहु शिखर- कोशस्य, ये दो पद गूढ़ अर्थों के अभिव्यंजक यह निश्चय है कि यहाँ वाण दिङनाग द्वारा वसुबन्धुकृत अभिधर्मकोश के सम्बन्ध में उनके शास्त्रार्थो का सांकेतिक उल्लेख कर रहे हैं। 'कोश' का अर्थ है अभिधर्म कोश। दिङनाग वसुबन्धु के समर्थक थे। उनका समय ३५० के चीव माना जाता है। तारानाथ के अनुसार दिङनाग वसुबन्धु के शिष्य ही थे जो उनके शिष्यसंप्रदाय में सबसे बड़े विद्वान् और स्वतन्त्र विचारक हुए। दिङनाग ने अपने महान् पाण्डित्य का वल वसुबन्धुकृत अभिधर्मकोश के मंडन में लगाया, जबकि वसुवन्धु के ही समकालीन दूसरे महान् तार्किक संवभद्र ने जो वैभाषिक दर्शन के अनुयायी थे, अभिधर्मकोश की आलोचना के लिये २६००० श्लोकों में अभिधर्मन्यायानुसार शास्त्र लिखा और फिर स्वयं ही अपने विशाल ग्रन्थ को संक्षिप्त करके १३००० ब्लोकों में उसे संक्षिप्त करके रचा। ये दोनों ग्रन्य चीनी त्रिपिटक में उपलब्ध हैं इनन्जिओ सूची सं १२६५-१२६६) । संघभद्र की दृष्टि में वसुबन्धु ने अपने अन्य में वैभापिक-नय का प्रतिपादन करने में स्वतंत्रता से काम लियाथा, अतएव उन स्थलों को उन्होंने अपना आलोच्य विषय बनाया । किन्तु दिडानाग ने वसुबन्धु के समर्थन में सार्वजनिक शास्त्रार्थों की धूम मचा दी। उसी की ओर वाण ने यहाँ संकेत किया है। बौद्ध साहित्य में एक ग्रन्थ हस्तवल- प्रकरण या मुष्टिप्रकरण है। इसके कर्ता आर्यदेव थे। छह कारिकाओं के इस ग्रन्थ पर दिङनाग ने टीका लिखी थी जिससे उस ग्रन्थ का वास्तविक स्वरूप मंडित हुआ। इसीलिये शीघ्र यह प्रसिद्धि हो गई कि दिझनाग ही हस्तवलप्रकरण या मुष्टिक्लप्रकरण के रचयिता थे। इसी ग्रन्थ के कारण हाय फटकार कर विपक्षियों से शास्त्रार्थ करने की किंवदन्ती दिनाग के विषय में प्रचलित हुई। इस पृष्ठभूमि में ही वाण के वाक्य का अर्य रामझा जा सकता है- 'दिइनाग के मस्तक की कूट कल्पनाओं से विकट बना हुआ जो वसुवन्धु का अभिधर्म कोश वा (दिनागकुम्भकूटविकट), उसे भाचार्य दिङनाग शास्त्रार्थों में अपने दाहिने हाथ में लेकर (याहुशिखरकोश), वाएँ हाथ से अभिमानपूर्वक जव उसकी ओर संकेत करते थे (दपत्ति परामृगन् यामः पाणिपल्लवः), तब उनके वाएं हाथ की नसकिरणों की सलिल-धार गानों 1 १. इस अन्य के दो अनुवाद चीनी भाषा में हुए, परमार्य और इचिट द्वारा (नन्जिओ सूची सं० १२५५-१२५६) तिब्बती में भी इसघार अनुवाद हुआ। उन्हीं के आधार पर एफ० उल्लू सामस ने इसका पुनद्धार करने का यत्न किया (जे० आर० ए० एस० १९१८, १०२६७ आदि) ।