पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४५

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अभिधर्मकोश किन्तु यह अन्य स्वन्धों में, अन्य आयानादि में संगृहीत नहीं होता क्योंकि इसका भाव उनके भाव से वियुक्त है। इसमें संदेह नहीं कि पर्षदों का संग्रह दानादि संग्रह वस्तुओं से होता है। अतः भिन्न वस्तुओं का संग्रह एक दूसरे से होता है। किन्तु यह संग्रह कादाचित्क है और इसलिए पारमार्थिक नहीं है किन्तु सांकेतिक है । जातिगोचरविज्ञानसामान्यादेकधातुता। द्वित्वेऽपि चक्षुरादीनां शोभायं तु योद्भवः ॥१९॥ किन्तु यह कहा जायगा कि चक्षु, श्रोत्र और धाणेन्द्रियों का द्वित्व है । अतएच २१ धातु परिगणित होना चाहिए। १९, चक्ष, श्रोत्र और घ्राणेन्द्रिय यद्यपि दो दो हैं तथापि एक एक धातु माने जाते हैं क्योंकि जाति, गोचर और विज्ञान में यह सामान्य हैं। शोभा के निमित्त इनका द्वित्व- भाव है। दोनों चक्षुरिन्द्रियों का जाति-सामान्य है क्योंकि दोनों चक्षुरिन्द्रिय हैं ; इनका गोचर- सामान्य हैं क्योंकि दोनों का गोचर रूपधातु है; इनका विज्ञान-सामान्य भी है क्योंकि दोनों चक्षुर्विज्ञानधातु के आश्रय हैं। अतएव दो चक्षुरिन्द्रिय का एक ही धातु होता है। इसी प्रकार श्रोत्र और ब्राण की भी योजना करनी चाहिए। यद्यपि मिलकर केवल एक धातु होते हैं तथापि इत्तको उत्पत्ति शरीर की शोभा के लिए युग्म में होती है। एक चक्षु, एक श्रोत्राधिष्ठान, एक नासिका-बिल के होने से बड़ा दरूप्य होगा (२.१ ए; १.४३, ३०) 13 राश्यायद्वारगोनार्थाः स्कन्वायतनधातवः । मोहेन्द्रियरुचिधात् तिखः स्कन्धादिदेशनाः ॥२०॥ [३५] स्कन्थ, आयतन, धातु इन आख्याओं का क्या अर्थ है ? १ दोघ, ३.२३२, धर्मसंग्रह, १९, महाव्युत्पत्ति, ३५ आदि । २ जातिगोचरविज्ञानसामान्यादेकधातुता। द्वित्वेऽपि चक्षुरादीनां शोभाय तु पोद्भवः ॥ व्याख्या ४१.२७, ४२.४] एक चक्षु. एक श्रोन, एक नासिकर-पुट होने से अत्यन्त कुरूपता उत्पन्न होगी व्याख्या ४२.५]। किन्तु उन्क मार्जार, उलूक अति अनेक पशुओं के आश्रय को शोभा दो चक्षु आदि के होने से भी नहीं होती : अन्य जातियों को अपेक्षा उनकी आवय-शोभा नहीं होती। किन्तु स्वजाति में जिसके एक हो चक्षु आदि होते हैं उसका अपेक्षाकृत वरूप्य होता है । चाल्या ४२.५-१०] संघभद्र 'शोमार्यम्' का अर्थ 'आधिपत्यार्यम्' करते हैं (२.१ देखिए। लोक में वही शोभित होता है जो आपिपता-संपन्न है। जिनके एक हो चक्षु-अधिष्ठान होता है वह आधिपत्य से सम्पन्न नहीं होते अर्थात् उनका परिशुख दर्शन नहीं होता क्योंकि एक चक्ष से वैसा परिशुद्ध दर्शन नहीं होता जैसा दो चक्षुओं से ध्याख्या ४२.११]