पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४४

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१ प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश २९ यह सत्य है किन्तु १७ सी-डी. षष्ठ विज्ञानधातु का माश्रय प्रसिद्ध करने के लिए १८ धातु गिनाते हैं। प्रथम पाँच विज्ञानधातुओं के चक्षुरादि ५ रूपीन्द्रिय आश्रय हैं (१.४४ सी-डी भी देखिए)। षष्ठ विज्ञान, मनोविज्ञानधातु का ऐसा कोईआश्रय नहीं है । अतएव इस विज्ञानधातु का आश्रय प्रसिद्ध करने के लिए मनोधातु व्यवस्थापित करते हैं। जो इसका आश्रय होता है अर्थात् ६ [३३] विज्ञानधातुओं में से अन्यतम वह मनस् या मनोधातु अथवा मन-आयतन और मन-इन्द्रिय कहलाता है। इस प्रकार ६ आश्रय या इन्द्रिय, आश्रय-पटक पर आश्रित ६ विज्ञान और ६ आलम्बन के व्यवस्थान से १८ धातु होते हैं। आक्षेप-- -यदि निरुद्ध होने के अनन्तर जव विज्ञानधातु या चित्त अन्य विज्ञान का आश्रय होता है तब वह मनस् की आख्या प्राप्त करता है तो अर्हत् का चरम चित्त मनस् न होगा क्योंकि इसके अनन्तर अन्य चित्त उत्पन्न न होगा जिसका यह समनन्तरप्रत्यय और आश्रय हो (१.४४ सी-डी)। यह चरम चित्त मनोभाव से, आश्रय भाव से अवस्थित होता है। यदि इसके अनन्तर उत्तर विज्ञान की संभूति नहीं होती अर्थात् पुनर्भव का प्रतिसन्धि-विज्ञान संभूत नहीं होता तो यह उसके स्वभावके कारण नहीं है। यह अन्य कारणों की विकलता से, उस कर्म और क्लेग के वैकल्य से होता है जो उत्तर विज्ञान के संभव के लिए आवश्यक हैं। सर्वसंग्रह एकेन स्कन्धेनायतनेन च । धातुना च स्वभावेन परभावदियोगतः॥१८॥ सर्व संस्कृत धर्म स्कन्ध-संग्रह में (१.७) संगृहीत हैं; सर्व सास्रव धर्म उपादानस्कन्ध-संग्रह में (१.८) संगृहीत हैं; सर्व धर्म आयतन-संग्रह और धातुसंग्रह में संगृहीत है (१.१४)। किन्तु समासतः १८ ए.बी. सर्व धर्म एक स्कन्ध, एक आयतन और एक धातु में संगृहीत हैं- रूपस्कन्ध, मन आयतन और धर्मवातु में। १८.सी-डी . धर्म का संग्रह स्वभाव में होता है क्योंकि यह दूसरे के भाव से वियुक्त है।' धर्म का संग्रह अपने से भिन्न भाव में नहीं होता । यथा चक्षुरिन्द्रिय का संग्रह रूपस्कार [३४] में होता है क्योंकि यह रूप-स्वभाव है; चक्षुरायतन में, चक्षुर्धानु में होता है क्योंकि यह चक्षुरायतन चक्षुर्वातु है; दुःख-सत्य और समुदय-सत्य में होता है क्योंकि यह दुःख और समुदय है। १.पष्ठाश्रयप्रसिद्धचर्य धातवोऽष्टादश स्मृताः॥ व्याख्या ४०.१४] १ एकेन स्कन्धायतनधातुना सर्वसंग्रहः । अविज्ञप्ति रूपस्कन्ध और धर्मधातु में संगृहीत है। परभाववियुक्तत्वात् स्वभावेनैव संग्रहः ।। धातुकथापकरण, कयावत्यु, ७.१, धातुकाय, प्रकरण (नीचे १.२०, पृ.३९ नोट ३ देखिए) में संग्रह के प्रश्न का विचार किया गया है। २