पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४३१

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तृतीय कौशस्थान : लोक निर्देश बौद्ध-परमाणु से रूपादि का ग्रहण होता है। अतः धातुसंवर्तनी के समय रूपादि के विनाश से परमाणु का विनाश सिद्ध है। [२१४] वैशेषिक-परमाणु द्रव्य है । द्रव्य रूपादि से अन्य है। परमाणु-विनाश के विना रूप का विनाश हो सकता है। बौद्ध-द्रव्य और उसके गुणों का अन्यत्व अयुक्त है। क्योंकि कोई यह परिच्छेद नहीं करता कि "यह पृथिवी-अप-तेज हैं और यह रूप रस आदि पृथिवी के गुण हैं।" और आपकी यह प्रतिज्ञा है कि पृथिवी आदि द्रव्य चक्षु और स्पर्श से ग्राह्य हैं। [अतः आप यह नहीं कह सकते कि उनका निर्धारण अतीन्द्रिय होने से नहीं होता] |--पुनः जव ऊर्ग, कार्पास, अहिः फेन, गुग्गुल दग्ध होते हैं तब क्षार में ऊर्णादि बुद्धि नहीं होती, अतः रूपादि में यह बुद्धि होती है, न कि अर्थान्तरभूत द्रव्य में जिसका गुण रूप है ।-आप कहेंगे कि यदि आम मृद्धट का अग्नि से सम्बन्ध होता है तब भी हम कहते हैं कि यह वही घट है और इसलिए घट रूप से द्रव्यान्तर है और यद्यपि उसका रूप बदलता है तयापि घट वही है, उसका अवस्थान वैसा ही रहता है । किन्तु वास्तव में यदि पाकज की उत्पत्ति में आम घट का परिज्ञान होता है तो इसका कारण यह है कि उसका संस्थान समान रहता है : यथा पिपीलिका की पंक्ति का परिज्ञान होता है। वास्तव में यदि चिन्ह पूर्व न देखें हों तो घट का किसको परिज्ञान होगा? हम इन वालोचित वादों के विचार को यहाँ स्थगित करते हैं। संवर्तनी का ऊर्ध्व पर्यन्त क्या है ? १०० सी-१०१ डी. द्वितीयादि घ्यानत्रय संवर्तनियों के यथाक्रम शीर्ष है.-संवर्तनी और प्रथम तीन ध्यान के अपक्षाल का साधर्म्य होने से। चतुर्थ ध्यान अनिजित [२१५] है। इससे उसमें संवर्तनी नहीं है। ऐसा नहीं है कि यह नित्य है क्योंकि उसके विमानों का उसके सत्वों के सहित उदय-व्यय होता है। १. द्वितीय ध्यान अग्नि-संवर्तनी की सीमा है। इसके जो अधः है वह सब दग्ध हो जाता है। तृतीय ध्यान अल-संवर्तनी की सीमा है। इसके जो अधः है वह सव विलीन हो जाता है। चतुर्थ ध्यान वायु-संवर्तनी की सीमा है । इसके जो अधः है वह सब विकीर्ण हो जाता है। संवर्तनी की परिसमाप्ति पर जो अवशिष्ट रहता है उसे 'संवर्तनी-शीर्ष कहते हैं। द्रव्यं हि परमाणुः। अन्यच्च रूपादिभ्यो द्रव्यम् । वैशेषिकसूत्र, २. १. १: पृथिवी रूप- रसगन्धस्पर्शवती है,-९. पृ. २८८ देखिये। अयुक्तमस्यान्यत्व पैलुकों का मत है कि ऊर्णादि अवयविद्रव्य दग्ध नहीं होते। प्राक्तन गुणों की निवृत्ति होती है। पाकज नये गुणों की उत्पत्ति होती है किन्तु द्रव्य जो गुणों के आश्रय हैं तदवस्थ होते हैं। (व्याख्या ) न्याय विन्दु, कलकत्ता, १८८९, पृ.८६ में कणाद का एक शिष्य पेलुक' है। न्यायवार्तिकतात्पर्य, ३५५ में (३, १, ४, पर ) एक 'पैलुकंठ है'। पाकजोत्पत्ती घटपरिज्ञान संस्थानसामान्यातू । पंक्तिवतू । चिह्नमपश्यतोऽपरिज्ञानातू । ध्यानत्रयं द्वितीयादि शीर्ष तासां यथाक्रमम् ॥ तदपक्षालसाधान्न चतुर्थेऽस्त्यनिजनात्। न नित्यं सह सत्त्वेन तद्विमानोदयव्ययात् ।। २ .