पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४२८

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अभिधर्मकोश न नित्यं विदेह द्वीप और गोदानीय द्वीप में यह तीन निर्याण नहीं होते : किन्तु जब जम्बुद्वीप शस्त्र, रोग और दुभिक्ष से अभिभूत होता है तब व्यापाद, दुर्वर्ण, दुर्बलता, बुभुक्षा और पिपासा का वहाँ उद्रेक होता है। हमने अग्नि-संवर्तनी का वर्णन किया है और कहा है कि अन्य संवर्लनियाँ समान प्रकार से होती है। संवर्तन्यः पुनस्तिस्त्रो भवन्त्यग्न्यम्बुवायुभिः। ध्यानत्रयं द्वितीयावि शीर्ष तासां यथाक्रमम् ॥१००। तदपक्षालसाधान्न चतुर्थेऽस्त्यनिजनात् । सह सत्वेन तद्विमानोदयव्ययात् ॥१०१॥ १०० ए-बी. तीन सवर्तनी हैं : अग्नि से, जल से, वायु से। [२१०] जब सत्व किसी ध्यान लोक में सन्निपतित हो (संवर्त) अधर भाजनों से अन्तहित होते हैं तो संवर्तनी होती है : अग्नि-संवर्तनी सप्तसूर्यों से, जलसंवर्तनी वर्षावश, वायु-संवर्तनी वायु धातु के क्षोभ से। इन संवर्तनियों का यह प्रभाव होता है कि विनष्ट भाजन' का एक भी परमाणु अवशिष्ट नहीं रहता। (यहाँ अवयविन और अवयव, गुणिन् और गुण का प्रश्न है, ३.४६ डी) कणभुक् प्रभृति तीर्थकार कहते हैं कि परमाणु नित्य है और इसलिए जब लोक धातु का नाश होता है तब यह अवशिष्ट रहते हैं। वास्तव में इन वादियों का कहना है कि यदि अन्यथा होता तो स्थूल शरीर की उत्पत्ति अहेतुक होती। बौद्ध-किन्तु हमने निर्देश किया है (३. ५० ए) कि अपूर्व लोकधातु का बीज वायु है। यह वायु आधिपत्य-विशेष से युक्त होती है। इन विशेषों का प्रभव सत्वों के कर्म से होता है। और इस वायु का निमित्त अवशिष्ट रूपावचर वायु है। पुनः महीशासकों के सूत्र है कि वायु लोकान्तर में बीजों को आहृत करती है। में उक्त ३ टि.२ संवर्तन्य: पुनः तिस्रो भवन्त्यग्न्यम्बुवायुभिः । दीर्घ, २१:१; विभाषा (१३३, ८) में इसका विचार है कि सूर्य, जल, वायु की उत्पत्ति कहाँ से होती है (जो सूर्य लोक के आदि में निर्वृत्त होते हैं ? जो सूर्य सत्वों के कर्म से कल्पान्त में निर्वृत्त होते हैं?) । विभाषा इसको परीक्षा करती है कि पदार्थों का क्या होता है : क्या परिणाम है (३.४९ डी)? क्या यह अग्नि-जल में परिवर्तित होता है ?—ऊपर पृ १८४, [उसी प्रकार जैसे लोक के अन्त में काम धातु की अचि रूपाक्चर अचि को समुत्थित करती है। ऊपर पृ० १८४] बोजानि आहियन्ते--किओकुग से की यहाँ दीर्घ, २२, १३ का उल्लेख करते हैं जहाँ पांच जों का वर्णन है। इसी प्रकार व्याख्या : पंच बीजजातानि मूलबोजं फलु-बीजं बीजवीजम् अग्रवीजं स्कन्धवीजम् । दीघ, १.५, ३.४४, ४७ : सुमंगलविलासिनी, १.८१ आदि रोज डेविड्स और स्टोर 'बीज' देखिये) : मूल, खन्ध, फलु, अग्ग, बीजवीज, स्टान फैग्मेंट्स जेआरएएस १९१३, ५७४, राकहिल रीव्यू ऑव रेलिजस हिस्ट्री, ९, १६८ । २