पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४२४

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. . . .. अभिधर्मकोश प्राथमकल्पिक पुद्गल' रूपावचर सत्वों के सदृश थे। सूत्र में उक्त है कि ऐसे रूपी मनोरम सत्व हैं जो सर्व अंग प्रत्यंग से उपेत हैं, जो अविकल्प और अहीनेन्द्रिय है, जो शुभ, वर्णस्थायी, स्वयंप्रभ, आकाशचारी, प्रीतिभक्ष और दीर्वायु हैं। [२०५] किन्तु पृथिवी-रस उत्पन्न हुआ। उसका स्वादु रस मधु के समान था (मधु-स्वादुरस) । एक सत्व ने जो प्रकृति का लोभी था इस रस के गन्ध का प्रतिसंवेदन किया। उसने रसास्वाद किया और उसका पान किया। पश्चात् अन्य सत्वों ने भी ऐसा ही किया। यह कबड़ीकार आहार(३ . ३६)का आरम्भ था। इस आहार वश शरीर स्थूल और गुरु हो गये और उनकी प्रभा जाती रही। इससे अन्धकार हुआ। किन्तु तब सूर्य और चन्द्र का प्रादुभाव हुआ। सत्वों के इस रसराग के कारणपृथिवी रस शनैः शनैः अन्तहित हो गया। तब पृथिवी-पर्पटक' का प्रादुर्भाव हुआ और सत्वों में उसके प्रति राग उत्पन्न हुआ। यह पर्पटक विलुप्त हो गया और कत्वात् मागादः क्षत्रपो भूतः - एक रक्षक जो भागभूत् तिब्बती : उन (पुद्गलों) ने, जिन्होंने अपना भाग लिया और जिन्होंने रसराग-वश और आलस्यवश संग्रह किया एक क्षेत्रप को भृति दी।" परमार्थ : शनैः शनैः रसरागवश और आलस्यवा सत्व संग्रह करते हैं, धन से क्षेत्रप को सन्तुष्ट करते हैं (पाठभेद : उसको भुति देते हैं)--शआन-चाड "संग्रह और स्तेय के प्रादुर्भाव के कराण [चोर को पकड़ने के लिए वह क्षेत्रप को भृति देते हैं।" २ बौद्धों के सृष्टि-आरम्भ पर संक्षिप्त पुस्तक सूची। ए अग्गझसुत्त, दीघ, ३.८४ और १.१७ (डायलाग १. १०५, ३.९ तथा २५, बुद्धघोष के अनुसार 'अग्गा' शब्द का अर्थ; फ्रांके, २७३)–विसुद्धिमग्ण, ४१७ (बारेन, ३२४, हावी, मैनुएल, ६३ )। वी. कंजूर, विनय ३१४२१-४३०, ५११५-१६६, शीफनर द्वार। अनुवादित, ६ जून १८५१, मेलाँग आजितिक, ११३९५ (इसका उल्लेख जार्जी अल्फाबेटम टिबेटनुम, १८८, पैलास, साफ्लुंगम ऊबर डोमंगोलिशन फोल्केर शफटेन, २२:२८, कोवालेस्की, बुधिस्टिशेन कास्मालाजी, कासान विश्वविद्यालय का मेलामर, १८३७, १११२२, और स्सनड ससेत्सना, स्मिट कृत) एवं राकहिल, लाइफ १। लोकप्रमाप्ति, ११. (कास्मालोजी, ३१८ में इसका विवरण है) जिसमें वासिष्ठ-भारद्वाज व्याकरण का उल्लेख है (दोघ, ३.८० से तुलना कीजिए) अभिनिष्क्रमण सूत्र, कंजुर, म्यो, २८, १६१, सोमा ने जे ए एस बी. १८३३, ३८५ में इसका अनुवाद दिया और रास ने जे ए एस बी, १९११ में इसका पुनः प्रकाशन किया सो महावस्तु, १.३३८ तथा नोट्स ६१५. डी बील, कैंटीना १०९, फोर लेक्चर्स, १५१ (वीर्घ, मध्यम, आदि के अनुसार) । दीर्घ, २३, ४ (दीर्घ, १. १७, ३४ से तुलना कीजिये ) व्याख्या : दृश्यरूपत्वाद् रूपिणः। उपपादुकत्वान्मनोमयाः हस्तपक्तदंगुल्याधु पेतत्वात् सर्वाङ्गप्रत्यङ्गोपेताः। समग्रेन्द्रियत्वाद् अविकला: काणविभ्रान्ताधभावादहीनेन्द्रियाः। दर्शनीयसंस्थानत्वाच्छभाः। रमणीयवर्णत्वाद् वर्णस्थायिनः। आदित्यादिप्रभातपेक्षत्वात्, स्वयंप्रभाः। कर्मीद्धसंयोगेनाकाशवरत्वाद् विहायसंगमा। कबड़ीकाराहारानपेक्षत्वात् प्रीतिभक्षाः प्रीत्याहारा इति पर्यायौ । तथा दीर्घायुषो दीर्घसध्यानम् तिष्ठन्तीति। ६.५३ सी में 'कर्मीद्ध' का व्याख्यान है। वहाँ इसे 'कर्मजा ऋद्धि' कहा है। पृथिवीपर्पटक, महाव्युत्पत्ति, २२३, २१२ । शुआनूचाड भूमि-पाटिका- अपूपः परमार्थ : भूमि-पर्पटिका-आकाश-महावस्तु १, ६१६, सेनार की प्पिणी (पोथियों में पर्यटक, पपंतक); कोष : पर्यट । ।