पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४०५

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश ३९७ क्रोश-इतने अन्तर पर अरण्य होना चाहिए-८ क्रोश का एक योजन होता है। [१७६] अतः ७ परमाणु = १ अणु, ७ अणु = १ लोहरजस् अविरजस् - एडकरजस् छिद्ररजस् - वातायनच्छिद्ररजस् "लिक्षा से जिसका उद्भव होता है" वह यूक है । आचार्य यह नहीं कहते कि तीन अंगुलिपर्वो की एक अंगुलि होती है क्योंकि यह सुविज्ञात है ।' अरण्य को ग्राम से १ क्रोश पर होना चाहिये । ८८ वी-८६ सी. २० शत क्षण का एक तत्क्षण होता है; ६० तत्क्षणों का एक लव होता है, मुहूर्त, अहोरात्र और मास, पूर्व पूर्व के तीस गुना होते हैं; संवत्सर ऊनरात्रों के साथ १२ मास का होता है। २ परमाणुरणुस्तथा। लोहाप्छशाविगोछिद्ररजोलिक्षातदुद्भवः । यस्तयांगुलीपर्व ज्ञेयं सप्तगुणोत्तरम् ॥ चतुर्विशतिरंगुल्यो हस्तो हस्तचतुष्टयम् । धनुः पञ्च शतान्येषां ऋोशोऽरण्यश्च......॥ तेष्टौ योजनमित्याहुः "हस्तलिखित पोथी". रण्यश्च तत् सतम्- यह महाव्युत्पत्ति, २५१ की सूची (धातायनच्छिद्ररजस् और यूक = लिक्षोद्भव क साय) है। धनुस् = दण्ड; हस्त = अभिधर्म वचन काल का पुरुषहस्त लेना चाहिये जिससे चतुर्वीप निवासियों के परिमाण का व्यवस्थान होता है। शार्दूलकर्ण की सूची (दिव्य, ६४५ जहाँ पाठ भिन्न है)कुछ विवरणों में भिन्न है। ललित, १४९ में अगु और वातायनरजस् के बीच त्रुटि है। यूक के स्थान में सर्षप है। अन्य वौद्धग्रन्य, लोकप्रज्ञाप्ति, पत्रा १२ ए (कास्मालोजी, पृ०, २६२), वाटर्स, १. १४१ (विभाषा, १३६); सद्धर्मस्मृति, लेवी, रामायण १५३, कल्पद्रुम (कलकत्ता. १९०८), ९. -गणित- सारसंग्रह, ३; वराहमिहिर (अलबरूनी, १. १६२ में); फ्लोट, जे आर ए एस १९१२, २२९, १९१३, १५३, हापकिन्स, जे ए ओ एस ३३, १५०; बार्नेट ऐंटीक्विटीज पालि अर्थ कथाओं में लिक्खा = ३६ रत्त रेणु, ॐ ऊका। -कि २. मे यह त्यक्त है। आइटल(पृ.९८) कहते हैं कि श्मशान के योगी को ग्राम में एक कोस के भीतर न आना चाहिये। विशत्क्षणशतं पुनः। लक्षणस्ते पुनः षष्टिलवस्त्रिशद्गुणोत्तराः॥ त्रयो मुहर्ताहोरात्रमासा द्वादशमासकः। संवत्सरः सोनरात्रः लोकप्रशाप्ति, पत्रा ५५ वी. कास्मालोजी, ३०९ के अनुसार सि-यु-कि २. में (वाटस १. १४३, बोल १. ७१ जूलिए १.६१; डिक्शनरी न्यूमेरिक में रेलीजस एमिनेंट्स ,१५२ में उद्धृत 'वक्षण के स्थान में 'तत्क्षण' होना चाहिये) यह विचार उल्लिखित हैं। महाव्युत्पत्ति, २५३ के प्रभाव का मतभेद । दिव्य, ६४३-६४४ में क्षण और तत्क्षण का क्रम-विपर्यय है। क्षण पर ऊपर पृ० १७७, १ 3