पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३९३

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश निवास करते हैं। अन्य बहुत से देव हैं यथा क्रीडा प्रमोषक, प्रहासक मादि । इनका इस ग्रन्थ में उल्लेख नहीं है। यहाँ संक्षेप में कहा है। ६६ वी डी. ६ देव कामभुक् है। इनका मैथुन' द्वन्द्व, आलिंगन, पाणि-स्पर्श. हास और ईक्षण से होता है। चातुर्महाराजकायिक. त्रायस्त्रिंश, याम, तुषित, निर्माणरति और परनिर्मितवशवतिन् कामधातु के देव हैं। ऊर्ध्व देव कामावचर' नहीं हैं। चातुर्महाराजकायिक और त्रायस्त्रिंश स्थिर भूमि पर निवास करते हैं। अतः इनका मैथुन मनुष्यों के समान' द्वन्द्व-समापत्ति से होता है। किन्तु क्योंकि इनके शुक्र नहीं होता इसलिये यह वायु निर्गत कर परिदाह-विगम करते है । याम आलिंगन से, तुषित पाणिग्रहण से, निर्माणरति हास' से, परनिर्मितवशवतिन् ईक्षण से परिदाह-विगम करते है । यह प्रज्ञाप्ति का वाद है। [१६५] वैभापिकों के अनुसार (विभाषा, ११३, ए) प्रज्ञाप्ति के यह शब्द, आलिंगन, पाणिस्पर्श आदि, मैथुन के प्रकार को नहीं सूचित करते -क्योंकि इन सव देवों की द्वन्द्व-समापत्ति होती है किन्तु काल-परिमाण को सूचित करते हैं। विषयों के अधिकाधिक अभिप्रेत होने से जितना तीन-तीव्रतर राग होता है उतना ही (अल्पतर) मैथुनकाल होता है। जिस देव या देवी के घुटनों पर देव शिशु या देवी शिशु प्रादुर्भूत होता है या होती है, वह उनका पुत्र या दुहिता होता है सव देव 'उपपादुक' (३.८ सी) हैं। V ५ २ महाव्युत्पत्ति, १६५ आदि के भौम और आन्तरिक्षवासिन् (?) वसुवन्धु यहाँ असुरों का वर्णन (३. ४ देखिये) नहीं करते जिनका उल्देख लोकप्रज्ञाप्ति में है (बुद्धिस्ट कास्मालोजी में इसका अनुवाद है)। वह मार (जिस पर बोल कैटोना, ९३ देखिये, शावान फाइव हंड्रेड एकाउंटस १. १२५ = परनिर्मितक्शवतिन् का रामा, हूवर, सूत्रालंकार, ११०) और महेश्वर (बील ९४) की भी उपेक्षा करते हैं। पालि: खिड्डापदोसिक का भुजस्तु षट् । द्वन्द्वालिंगनपाण्याप्ति हसितेक्षण मैथुनाः॥ लोकप्रज्ञाप्ति, अध्याय ६ (बुद्धिस्ट कास्मालोजी पु० ३००) "यथा जम्बु में अब्रह्मचर्य, मैयुनधर्म, द्वन्द्वसमापत्ति है, उसी प्रकार अन्य द्वीपों में और देवों में यावत् बायस्त्रिशदेव भी है। यामों में आलिंगन से परिदाह निगम होता है. पुनः लोकप्रज्ञाप्ति ः “यथा जम्बु में स्त्रियों का मासिक धर्म होता है, वह गर्भवती होती हैं, पुत्र प्रसव करती हैं उसी प्रकार अन्य द्वीपों में भी। चातुर्महाराजकायिकों में शिशु देव या देवी के उत्संग में या स्कन्ध पर प्रादुर्भूत होता है. कालपरिमाणं तु प्रज्ञाप्तावुक्तम्-व्याख्या: "जितने काल तक द्वन्द्व, आलिंगन, पाणिस्पर्श, हास, ईक्षण होता है उतने काल तक यामादि भूमि सम्बन्धी निवासी देवों को (चातुर्महारा- जिक और नास्त्रिश) द्वन्द्व-समापत्ति होती है। भाज्य पर व्याख्या प्रकाश डालती है : यावद् यावत् परतरेण परतरेण विषयाणां तीव्रतरत्वाद् रागोऽपि तीवतरस्तावत् तावन्मयुनकाल इत्यभिप्रायः। विभाषा, ११३, ८... कुछ का कहना है कि अर्ध्व देव ज्यों ज्यों बैराग्य के संनिकृष्ट होते हैं, उनका परिदाह मन्द होता जाता है किन्तु प्रत्येक् मैयुन में परिदाह के विगम के लिये द्वन्द्व-समापत्ति आवश्यक है। २५ १