पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३७०

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अभिधर्मकोश (सकृच्च्युति) होती है तो कायेन्द्रिय मनस् के साथ एक क्षण में निरुद्ध होता है। ४३ सी-४४ए. क्रमच्युति में अधोग, नृग, सुरग यथासंख्य पाद, नाभि, हृदय में च्युत होता है।' 'अधोग' वह है जो अधःगामी है, जो अपायगामी भी है; 'नृग' वह है जो मनुष्यगामी है; 'सुरग'वह है जो देवगामी है। इन सत्वों का विज्ञान यथाक्रम पाद, नाभि, हृदय में संनिरुद्ध होता है। [१३५] 'अज' वह है जो पुनः उत्पन्न नहीं होता। यह अर्हत् है । उसका विज्ञान भी हृदय में संनिरुद्ध होता है । एक दूसरे मत के अनुसार यह शीर्ष में संनिरुद्ध होता है।' विज्ञान का निरोध काय के अमुक अमुक भाग में कैसे होता है ?--क्योंकि इस भाग में कायेन्द्रिय का निरोध होता है। [यह इन्द्रिय ही उसका आश्चय रह जाता है, ३.४१ । इस इन्द्रिय से अरूपी और अदेशस्थ विज्ञान की वृत्ति प्रतिबद्ध है ।] कायेन्द्रिय का विनाश किसी प्रदेश में होता है । कायेन्द्रिय के विनाश से विज्ञान का निरोध होता है । जीवित के अन्त भाग में कार्यन्द्रिय का ईषत् ईषत् निरोध होता है । अन्त में अमुक अमुक भाग में जहाँ अन्तहित हो इसका अन्त होता है, इसका अस्तित्व नहीं रहता, यथा उष्ण प्रस्तर पर रखा जल क्रमश: अपचित होता है और किसी विशेष प्रदेश में अन्तहित हो निरुद्ध होता है। इस प्रकार क्रमिक मृत्यु होती है । प्रायेण च्यवमान पुद्गल वेदनाओं से अर्दित होता है जो मर्म का छेद करती हैं। ४४ बी. मर्मच्छेद जलादि से होता है। ३ क्रमच्युतौ पादनाभिहृदयेषु सनश्च्युतिः। अधोनसुरगाजानाम् सकृत् और क्रमिक इन दो प्रकार को मृत्यु पर २.१५, अनुवाद . पृष्ठ . १३३, विभाषा' जब मृत्यु ऋमिक होती है तब चक्षु, श्रोत्र, प्राण और जिव्हेन्द्रिय, पुरुषेन्द्रिय-स्त्रीन्द्रिय, सुर्खेद्रिय, दुःखेन्द्रिय प्रथम अन्तहित होते हैं। कार्यन्द्रिय, जीवितेन्द्रिय, मनस् और उपेक्षेन्द्रिय शेष रह जाते हैं : इन चार इन्द्रियों का एक साथ निरोध होता है। वोल, कौटिना, ४१ में महायान को एक गाथा के अनुसार भिन्न सूचनायें हैं। अर्हत के लिये शीर्ष, अनागत देव के लिये चक्षु, अनागत मनुष्य के लिये हृदय, अनागत प्रेत केलिये क्षण....। इसको परीक्षा कर के कि कौन भाग सब से अधिक काल तक उष्ण रहता है मृत की भविष्य मति बतायी जा सकती है। बौद्ध होने के पूर्व बंगीश ने कपाल की सफलता के साथ परीक्षा की और जान लिया कि मृत पुरुष को मनुष्यगति, देवगति या अपायगति होगी। किन्तु अर्हत के कपाल की परीक्षा कर वह कुछ न कह सका (थेरगाथा की अर्थकथा, ३९५) अवदानशतक, १.५ में हम देखते हैं कि उस गति के अनुसार जिसको वह भविष्यवाणी कहते हैं बुद्ध के काय के भागविशेष में किरण प्रवेश करती हैं। पाद में, जब वह अपायगति का भविष्य कहते हैं........] 'कायेन्द्रियस्य तेषु निरोधात्-विज्ञान अरूपी होने से (अरूपितत्वात्) अदेशस्थ है किन्तु सेन्द्रियकाय इसका आश्रय है। [व्या ३२१, ८] 'मर्मच्छेदस्त्वयादिभिः। मर्म और ४०४ रोग पर विभाषा, १९०, १३ आदि; सद्धर्मस्मृत्युपस्यान, ८, १-~ोधि- चर्यावतार, २.४१ (मर्मच्छेदादिवेदना)