पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३६२

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अभिधर्मकोश २ अभिनिर्वृत्त कर (अभिनिवर्त्य) यह एक सदुःख लोक में उपपन्न होगा" २ और पुनः इस सूत्र से जिसका वचन है कि “इस पुद्गल ने अभिनिवृत्ति-संयोजन का प्रहाण किया है किन्तु उपपत्ति-संयोजन का नहीं। चार कोटि हैं : १. कामरूप से वीतराग योगी यदि वह अनागामी हैं । उसने अभिनिवृत्ति-संयोजन का प्रहाण किया है क्योंकि वह उन धातुओं में पुनरुपपन्न नहीं होगा जहाँ उपपत्ति-भव के पूर्व अन्तराभव होता है; उसने उपपत्ति- संयोजन का प्रहाण नहीं किया है क्योंकि वह आरूप्यधातु में पुनरुपपन्न होगा। २. अन्तरापरि- निर्वायिन् (३. पृ० ३९) अनागामी : अभिनिर्वृत्तिसंयोजन से बद्ध, उपपत्ति से मुक्त। [१२४] ३. अर्हत् जिसने दो प्रकार के संयोजनों का प्रहाण किया है। ४. अन्य पुद्गल जो पूर्व प्रकारों में संगृहीत नहीं हैं, जिन्होंने दो प्रकार के संयोजनों में से किसी का प्रहाण नहीं किया है। एक दूसरे व्याख्यान के अनुसार भूत (पृ० १२२) अर्हत् हैं : 'संभवैषिन्' शब्द से वह सत्त्व प्रज्ञप्त हैं जो सतृष्ण हैं और जो इसलिये पुनरुपपन्न होंगे। वह कौन आहार है जो [पुनर्भव की स्थिति और 'अनुग्नह' इन दो कृत्यों को पूरा करते हैं ?' वैभाषिकों के अनुसार चारों आहार इन दो कृत्यों को निष्पन्न करते हैं। क्योंकि कवडीकार आहार उनके लिये पुनर्भवसंवर्तनीय है (पुनर्भवाय संवर्तते) जो उसमें अनुरक्त हैं (तद्रागिणाम्) । यह इस सूत्रपद से ज्ञापित होता है । भगवत् का वचन है कि "चार आहार ..सदुःखकाय, ..--लोत्सव का अनुवाद : काय, आत्मभाव: चीनी अनुवादक = स्वभाव। व्याख्याः सव्याबाधं (सदुःख त्वात्) अभिनिवर्त्य । यह एक चतुष्कोटिक सूत्र है : अस्ति पुद्गलो यस्याभिनिवृत्तिसंयोजनम् प्रहीणं नोपपत्ति- संयोजनम् 1 अस्ति यस्योपपत्तिसंयोजनम् प्रहोणं नाभिनिर्वृत्तिसंयोजनम् । अस्ति यस्याभिनिर्वृतिसंयोजनम् प्रहीणं उपपत्तिसंयोजनम् च । अस्ति यस्य नाभिनिर्वृत्तिसंयोजनम् प्रहोणं नोपपत्तिसंयोजनम् । अभिनिर्वृत्ति और उपपत्ति के भेद का विवेचन कोश, ६.३, अनुवाद पृ० १३७ -१३८ में किया गया है। रीज डेविड्स-स्टोउ में अनेक सूचनायें अभिनिबत्त, अभिनिव्वत्ति, और अभिनिब्बतेति शब्दों के नीचे मिलेंगी। इनमें से एक अत्यन्त रोचक संयुत्त, ३.१५२ है (जो उपनिषत्के 'पुष्पिता वाक्' का किंचिन्मात्र स्मरण दिलाती है)। अंगुत्तर, २.१३४ में [ओरंभागिय संयोजन के अतिरिक्त जिससे कामधातु में पुनरुपपत्ति होती है] उप्पत्ति पतिलाभिक संयोजन ('उपपत्ति होना चाहिये) और भवपतिलाभिक संयोजन है। यह दूसरा संयोजन अभिधर्म का अभिनिर्वृत्तिसंयोजन है [भव = अन्तराभव : 'अन्तरापरिनिब्वाय' ने उपपत्ति-संयोजन का छेद किया है, भवसंयोजन का नहीं] " "यदि वह अनागानी है" यह शब्द आवश्यक हैं, क्योंकि लौकिक मार्ग से दो अधर घातुओं से वैराग्य हो सकता है, किन्तु वह आत्यन्तिक नहीं है। अनुग्रह--यहाँ संभवैषिन् से अन्तराभव नहीं समझना चाहिये किन्तु द्वितीय व्याख्यान के अनुसार (ऊपर) सब सतुष्ण सत्व अभिप्रेत हैं। १ विभाषा, १३०, १ में चार मत हैं। वसुबन्धु शास्त्रीय मत का अनुसरण करते हैं। यह युक्त है कि चार माहार में से तीन--मनःसंचेतना जो कर्म है। विज्ञान जिसे विज्ञान बीज अवधारित करते हैं, जो कर्मपरिभावित है। स्पर्श जो कर्म-संप्रयुक्त है--अनुग्रह (पुनर्भव) के लिये हैं (अनुग्रहाय भवति) । किन्तु कवडीकार आहार कैसे संभवषी के अनुग्रह के लिये है ? ३ १ २