पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३५५

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश ३४५ ध्यानभूमिक १० उपविचारों से : गन्धरसालम्बनोपविचारों को वर्जित कर चार दिलष्ट सौमनस्य- उपविचार से और अनागम्यभूमिक ६ उपेक्षोपविचार से और ३. पूर्ववत् द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ घ्यान-आरूप्यज से, समन्वागत होता है। इस मार्ग से शेष का अनुगमन करना चाहिये। ध्यानोपपन्न सत्त्व केवल एक कामावचर उपविचार से-निर्माणचित्त (७.४९ सी) से संप्रयुक्त उपेक्षाधर्मोपविचार से-समन्वागत होता है। एक दूसरे वादी'-~-यह उपविचार का व्याख्यान पैभाषिकों का है किन्तु हम सूत्र का अर्थ एक भिन्न पर्याय से करते हैं। जो पुद्गल जिस रूपादि विषय से वीतराग होता है वह उस रूपादि आलम्बन का उपविचार नहीं करता। सब सौमनस्यादि यद्यपि सास्रव हों उपविचार नहीं हैं। यह उपविचार तब होते हैं जब यह सांक्लेशिक होते हैं अर्थात् जब वहाँ सूत्र के शब्दों में “अनुनय, प्रतिधात या बिना प्रतिसंख्या के उपेक्षा होती है (अनुनीयत्ते, उपहन्यते, अप्रतिसंख्याय उपेक्षते)। और इन उपविचारों के प्रतिपक्षभूत (प्र (प्रतिव्यूह) ६ सतत विहारों' की देशना है : “चक्षु से रूपों को देख कर वह सु-मना और दुर्मना नहीं होता, वह स्मृति-संप्रजन्य से युक्त उपेक्षक होता है..... हमारा अर्थ युक्त है इसके सिद्ध करने के लिये हम कहते हैं कि अर्हत् लौकिक [११५] [और इसलिये सात्रव] कुशल सौमनस्य का जिसका आलम्बन धर्म है [अर्थात् धर्मायतन, १.२४ या अधिगम या आगम, ८.३९ ए] अनुभव करता है। उसी सौमनस्य का प्रतिपेध लक्षित है जो सांक्लेशिक होने से उपविचारभूत है।' t १ ३ रूपाणि दृष्ट्वा व्याख्या के अनुसार वसुबन्धु व्या ३१४. २५]; पू-कूआंग के अनुसार सौत्रान्तिक। २ सांक्लेशिक संक्लेशे भवः। संक्लेशानुकूलः। [व्या ३१४.३०] षट् सतता (व्याख्या का पाठ 'सातता' है) विहारा : (सततंभव = सतत, विहार = योग- विशेष) [व्या ३१४.३१] दोघ, ३.२५० (पाठभेद : सतत, सत्य, सस्सत), २८१, अंगुत्तर, २. १९८, ३.२७९--- संगीतिपर्याय, १५, ६, विभाषा, ३६, १५ (यह नाम इसलिये है क्योंकि अर्हत् सदा इनका अभ्यास करते हैं) चक्षुषा नैव सुमना भवति नानुनीयते । न दुर्मना न प्रतिहन्यते। उपेक्षको भवति नाभुजति स्मृतिमान् संप्रजानन् [= स्मृतिसंप्रयुक्तया प्रज्ञया प्रतिसमीक्षमाणः] [च्या ३१४. ३३] उपेक्षको विहरति, अत्थसालिनी, १७२। । जब अर्हत् बुद्धसान्तानिक धर्मो का संमुखीभाव करता है तब उसमें कुशल सौमनस्य का उत्पाद होता है। इसका प्रतिषेध या प्रतिपक्षत्व युक्त नहीं है। २ अनन्तवर्मा इस वाद को स्वीकार नहीं करते। यह युक्त नहीं है क्योंकि सूत्र में अन्यथा निर्देश है। सूत्र में भगवत् यह नहीं कहते कि सांक्लेशिक सौमनस्यादि ही उपविचार होते हैं। भगवत् कहते हैं कि "हे भिक्षुओ! यह जो ६ सौमनस्योपविचार हैं इनका आश्रय लेकर दौमनस्यो- पविचार का परित्याग करो; यह जो ६ उपेक्षोपविचार है इनका आश्रय लेकर सौमनस्योप- विचार का परित्याग करो। हे भिक्षुओ ! दो उपेक्षा है-एकत्वसंनिश्रित और नानात्वसं-